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कौन यह खड़ी अँधेरे पथ पर,
चिर-उपेक्षिता एक रो रही है अबला दुःखदुख-कातर!
 
क्या यह रत्नावली वही है
जो कवीकवि-गुरु की वधू रही है
पति-वियोग की व्यथा सही है
जिसने रह माँ के घर!
 
ज्ञानी, भक्त, धर्मध्वजधारी 
बाँट सके इसका दुःख बाँट सके इसका दुख भारी!
खड़ी युगों से यह दुखियारी
नयनों में आँसू भर  
जिसे अमृत इसने पिलवाया  
आप तृषाकुल रहकर!
 
कौन यह खड़ी अँधेरे पथ पर,
चिर-उपेक्षिता एक रो रही है अबला दुःखदुख-कातर!
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