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युग और मैं / नरेन्द्र शर्मा

1 byte added, 08:38, 15 अक्टूबर 2011
युग-परिवर्तन के इस युग का मूल्य चुकाना ही होगा,
उसका सच ईमान नहीं है, आज न जिसने दुख भोगा!
दुनिया की मधुबनी सूखती, मन, मेरी गुलदस्ती मेरा गुलदस्ता क्या!
ओ मेरी मनबसी कामना! अब मत रो, चुपकी हो जा!
ओ फूलों से सजी वासना! कुश के आसन पर सो जा!
टूट-फूट दुनिया कराहती, मेरे सुख-सपने ही क्या!
 
उजड़ रहीं अनगिनत बस्तियाँ, मन, मेरी ही बस्ती क्या!
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