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उद्धव को ब्रज भेजना / सूरदास

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गुरु-पतनी कह्यौ पुत्र हमारे, मृतक भये सो देहु जिवाई ॥<br>
आनि दिए गुरु-सुत जमपुर तैं, तब गुरुदेव असीस सुनाई ।<br>
सूरदास प्रभु आइ मधुपुरी, ऊधौ कौं ब्रज दियौ पठाई ॥1॥<br><br>
जदुपति जानि उद्धव रीति ।<br>
कछु कहत यह एक प्रगटत, अति भर्यौ अहंकार ॥<br>
प्रेम भजन न नैंकु याकौं, जाइ क्यौं समुझाइ ।<br>
सूर प्रभु मन यहै आनी, ब्रजहिं देउँ पठाइ ॥2॥ <br><br>
संग मिलि कहौं कासौं बात ।<br>
सखी सखा सुख नहिं त्रिभुवन मैं, नहिं बैकुंठ सुहात ॥<br>
वै बातें कहियै किहिं आगै, यह गुनि हरि पछितात ।<br>
दूरदास प्रभु ब्रज महिमा कहि, लिकी बदत बल ब्रात ॥3॥ <br><br>
तबहिं उपंग-सुत आइ गए ।<br>
ऐसे कैं वैसी बुधि होती, ब्रज पठऊँ मन आने ॥<br>
या आगैं रस-कथा प्रकासौं, जोग-कथा प्रगटाऊँ ।<br>
सूर ज्ञान याकौ दृढ़ करिकै, जुवतिन्ह पास पठाऊँ ॥4॥ <br><br>
हरि गोकुल की प्रीति चलाई ।<br>
गोपी ग्वाल गाइ बन चारन, अति दुख पायौ त्यागत ॥<br>
कहँ माखन-रोटी, कहँ जहँ जसुमति, जेंवहु कहि-कहि प्रेम ।<br>
सूर स्याम के बचन हँसत सुनि, थापत अपनौ नेम ॥5॥ <br><br>
जदुपति लख्यौ तिहिं मुसुकात ।<br>
नंद-जसुमति, नारि-नर-ब्रज तहाँ मेरौ प्रान ॥<br>
कहत हरि सुनि उपँग सुत यह, कहत हौम रस रीति ।<br>
सूर चित तैं टरति नाहीं, राधिका की प्रीति ॥6॥ <br><br>
सखा सुनि एक मेरी बात ।<br>
हँसि उपँग-सुत बचन बोले, कहा करि पछितात ॥<br>
सदा हित यह रहत नाहीं, सकल मिथ्या जात ।<br>
सूरप्रभु एक यह सुनो मोसौं, एक ही सौं नात ॥7॥ <br><br>
जब ऊधौ यह बात कही ।<br>
मो बिनु, बिरह भरीं ब्रजबाला, जाउ सुनावहु जोग ॥ <br>
प्रेम मिटाइ ज्ञान परबोधहु, तुम हौ पूरन ज्ञानी ।<br>
सूर उपंग-सुत मन हरषाने, यह महिमा इन जानी ॥8॥ <br><br>
ऊधौ तुम यह निश्चय जानौ ।<br>
रेख न रूप जाति कुल नाहीं, जाके नहिं पितु माता ॥<br>
यह मत दै गोपिनि कौं आवहु, बिरह नदी मैं भासत ।<br>
सूर तुरत तुम जाइ कहौ यह, ब्रह्म बिना नहिं आसत ॥9॥ <br><br>
ऊधौ मन अभिमान बढ़ायो ।<br>
मन ही मन अप करत प्रसंसा, यह मिथ्या सुख-भोग ॥<br>
आयसु मानि लियौ सिर ऊपर, प्रभु आज्ञा परमान ।<br>
सूरदास प्रभु गोकुल पठवत, मैं क्यौं हौं कि आन ॥10॥ <br><br>
तुम पठवत गोकुल कै जैहौं ।<br>
आजु नहीं जो करौं काज तुव, कौन काज फुनि लैहौं ॥<br>
यह मिथ्या संसार सदाई, यह कहिकै उठि ऐहौं ।<br>
सूर दिना द्वै ब्रज-जन सुख दै, आइ चरन पुनि गैहौं ॥11॥ <br><br>
तुरत ब्रज जाहु उपँग-सुत आजु ।<br>
सोइ कीजौ जातैं ब्रज-बाला, साधन सीखैं पौन ॥<br>
श्रीमुख स्याम कहत यह बानी, ऊधौ सुनत सिहात ।<br>
आयसु मानि सूर प्रभु जैहौं, नारि मानिहैं बात ॥12॥ <br><br>
हलधर कहत प्रीति जसुमति की ।<br>
मौकौं दौरि गोद करि लीन्हौ, इनहिं दियौ कर ठेलि ॥<br>
नंद बबा तब कान्ह गोद करि, खीजन लागे मोकौं ।<br>
सूर स्याम नान्हौं तेरौ भैया, छोह न आवत तोकौं ॥13॥ <br><br>
जसुमति करति मोकौं हेत ।<br>
स्याम हलधर सुत तुम्हारे, और के न कहाहिं ॥<br>
आइ तुमकौं धाइ मिलिहैं, कछुक कारज और ।<br>
सूर हमकौ तुम बिना सुख, कौ नहीं कहुँ ठौर ॥14॥<br><br>