भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
हर कंधे पर भार नहीं होता है |
नियति को क्यों कोस रहा है पगले
हर सपना साकार नहीं होता है | [२२]चांदी के टुकड़ों में ईमान नहीं मिलता है |पाषाणों की कारा में भगवान नहीं मिलाता है |आज जगत में सब कुछ मिल जाता है लेकिन सच तो यह है कि इंसान नहीं मिलाता है | [२३]जीना है तुम्हे तो भगवान बनके जी |एक पल भी न कभी शैतान बनके जी |जिन्दगी आंसू की हो या आनन्द की लहर तू आदमी है तो सदा इंसान बन के जी | [२४]श्वांस जो थी वह तपन बन गई |जो रातें मिलन की सपन बन गई |विधै, लाज आयी न तुमको ज़रा जो थी चूनरी वह कफ़न बन गई |
<poem>
514
edits