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<poem>
तुम मांस-हीन, तुम रक्त-हीनरक्तहीन,हे अस्थि-शेष! तुम अस्थि-हीनअस्थिहीन,
तुम शुद्ध-बुद्ध आत्मा केवल,
हे चिर पुराण, हे चिर नवीन!
तुम पूर्ण इकाई जीवन की,
जिसमें असार भव-शून्य लीन;
आधार अमर, होगी जिसपरजिस पर
भावी की संस्कृति समासीन!
::तुम मांस, तुम्ही हो रक्त-अस्थि,--
::निर्मित जिनसे नवयुग का तन,
::तुम धन्य! तुम्हारा नि:स्व-त्याग
सदियों का दैन्य-तमिस्र तूम,
धुन तुमने कात प्रकाश-सूत,
हे नग्न! नग्न-पशुता ढँकदीढँक दी
बुन नव संस्कृत मनुजत्व पूत।
जग पीड़ित छूतों से प्रभूत,
छू अमित स्पर्श से, हे अछूत!
तुमने पावन कर, मुक्त कियेकिए
मृत संस्कृतियों के विकृत भूत!
::सुख-भोग खोजने आते सब,
गुंजित कर दिया गगन जग का
भर तुमने आत्मा का निनाद।
रँगरंग-रँग रंग खद्दर के सूत्रों में
नव-जीवन-आशा, स्पृह्यालाद,
मानवी-कला के सूत्रधार!