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|रचनाकार=कृष्ण बिहारी 'नूर'
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[[Category:ग़ज़ल]]{{KKCatGhazal}}
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 नज़र मिला न सके उससे उस निगाह के बाद ।बाद।वही है हाल हमारा जो हो गुनाह के बाद ।।बाद।
मैं कैसे और किस सिम्त मोड़ता ख़ुद को,
किसी की चाह न थी दिल में, तिरी चाह के बाद ।बाद।
ज़मीर काँप तो जाता है, आप कुछ भी कहें,
वो हो गुनाह से पहले, कि हो गुनाह के बाद ।बाद।
कहीं हुई थीं तनाबें तमाम रिश्तों की,
छुपाता सर मैं कहाँ तुम से रस्म-ओ-राह के बाद ।बाद।
गवाह चाह रहे थे, वो मिरी बेगुनाही का,
जुबाँ से कह न सका कुछ, ‘ख़ुदा गवाह’ के बाद ।बाद।
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