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|रचनाकार=गोपालदास "नीरज"
}}
{{KKCatGhazal}}<poem>दूर से दूर तलक एक भी दरख्त न था|<br>तुम्हारे घर का सफ़र इस क़दर सख्त न था|<br><br>था।
इतने मसरूफ़ थे हम जाने के तैयारी में,<br>खड़े थे तुम और तुम्हें देखने का वक्त न था|<br><br>था।
मैं जिस की खोज में ख़ुद खो गया था मेले में,<br>कहीं वो मेरा ही एहसास तो कमबख्त न था|<br><br>था।
जो ज़ुल्म सह के भी चुप रह गया न ख़ौल उठा,<br>वो और कुछ हो मगर आदमी का रक्त न था|<br><br>था।
उन्हीं फ़क़ीरों ने इतिहास बनाया है यहाँ,<br>जिन पे इतिहास को लिखने के लिए वक्त न था|<br><br>था।
शराब कर के पिया उस ने ज़हर जीवन भर,<br>हमारे शहर में 'नीरज' सा कोई मस्त न था|<br>था।<br/poem>
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