भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
{{KKRachna
|रचनाकार=तुलसीदास
|संग्रह=रामचरितमानस / तुलसीदास
}}
{{KKPageNavigation
|सारणी=रामचरितमानस / तुलसीदास
}}
{{KKCatAwadhiRachna}}
<poem>
उतरु न देइ दुसह रिस रूखी। मृगिन्ह चितव जनु बाघिनि भूखी॥
ब्याधि असाधि जानि तिन्ह त्यागी। चलीं कहत मतिमंद अभागी॥
राजु करत यह दैअँ बिगोई। कीन्हेसि अस जस करइ न कोई॥
एहि बिधि बिलपहिं पुर नर नारीं। देहिं कुचालिहि कोटिक गारीं॥
जरहिं बिषम जर लेहिं उसासा। कवनि राम बिनु जीवन आसा॥
बिपुल बियोग प्रजा अकुलानी। जनु जलचर गन सूखत पानी॥
अति बिषाद बस लोग लोगाई। गए मातु पहिं रामु गोसाई॥
मुख प्रसन्न चित चौगुन चाऊ। मिटा सोचु जनि राखै राऊ॥
दो-नव गयंदु रघुबीर मनु राजु अलान समान।
छूट जानि बन गवनु सुनि उर अनंदु अधिकान॥51॥
उतरु न देइ दुसह रिस रूखी। मृगिन्ह चितव जनु बाघिनि भूखी।।<br />ब्याधि असाधि जानि तिन्ह त्यागी। चलीं कहत मतिमंद अभागी।।<br />राजु करत यह दैअँ बिगोई। कीन्हेसि अस जस करइ न कोई।।<br />एहि बिधि बिलपहिं पुर नर नारीं। देहिं कुचालिहि कोटिक गारीं।।<br />जरहिं बिषम जर लेहिं उसासा। कवनि राम बिनु जीवन आसा।।<br />बिपुल बियोग प्रजा अकुलानी। जनु जलचर गन सूखत पानी।।<br />अति बिषाद बस लोग लोगाई। गए मातु पहिं रामु गोसाई।।<br />मुख प्रसन्न चित चौगुन चाऊ। मिटा सोचु जनि राखै राऊ।।<br />दो-नव गयंदु रघुबीर मनु राजु अलान समान।<br /> छूट जानि बन गवनु सुनि उर अनंदु अधिकान।।51।।<br />रघुकुलतिलक जोरि दोउ हाथा। मुदित मातु पद नायउ माथा।।<br />माथा॥दीन्हि असीस लाइ उर लीन्हे। भूषन बसन निछावरि कीन्हे।।<br />कीन्हे॥बार बार मुख चुंबति माता। नयन नेह जलु पुलकित गाता।।<br />गाता॥गोद राखि पुनि हृदयँ लगाए। स्त्रवत प्रेनरस पयद सुहाए।।<br />सुहाए॥प्रेमु प्रमोदु न कछु कहि जाई। रंक धनद पदबी जनु पाई।।<br />पाई॥सादर सुंदर बदनु निहारी। बोली मधुर बचन महतारी।।<br />महतारी॥कहहु तात जननी बलिहारी। कबहिं लगन मुद मंगलकारी।।<br />मंगलकारी॥सुकृत सील सुख सीवँ सुहाई। जनम लाभ कइ अवधि अघाई।।<br />अघाई॥दो0- जेहि चाहत नर नारि सब अति आरत एहि भाँति।<br /> जिमि चातक चातकि तृषित बृष्टि सरद रितु स्वाति।।52।।<br />स्वाति॥52॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />तात जाउँ बलि बेगि नहाहू। जो मन भाव मधुर कछु खाहू।।<br />खाहू॥पितु समीप तब जाएहु भैआ। भइ बड़ि बार जाइ बलि मैआ।।<br />मैआ॥मातु बचन सुनि अति अनुकूला। जनु सनेह सुरतरु के फूला।।<br />फूला॥सुख मकरंद भरे श्रियमूला। निरखि राम मनु भवरुँ न भूला।।<br />भूला॥धरम धुरीन धरम गति जानी। कहेउ मातु सन अति मृदु बानी।।<br />बानी॥पिताँ दीन्ह मोहि कानन राजू। जहँ सब भाँति मोर बड़ काजू।।<br />काजू॥आयसु देहि मुदित मन माता। जेहिं मुद मंगल कानन जाता।।<br />जाता॥जनि सनेह बस डरपसि भोरें। आनँदु अंब अनुग्रह तोरें।।<br />तोरें॥दो0-बरष चारिदस बिपिन बसि करि पितु बचन प्रमान।<br /> आइ पाय पुनि देखिहउँ मनु जनि करसि मलान।।53।।<br />मलान॥53॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />बचन बिनीत मधुर रघुबर के। सर सम लगे मातु उर करके।।<br />करके॥सहमि सूखि सुनि सीतलि बानी। जिमि जवास परें पावस पानी।।<br />पानी॥कहि न जाइ कछु हृदय बिषादू। मनहुँ मृगी सुनि केहरि नादू।।<br />नादू॥नयन सजल तन थर थर काँपी। माजहि खाइ मीन जनु मापी।।<br />मापी॥धरि धीरजु सुत बदनु निहारी। गदगद बचन कहति महतारी।।<br />महतारी॥तात पितहि तुम्ह प्रानपिआरे। देखि मुदित नित चरित तुम्हारे।।<br />तुम्हारे॥राजु देन कहुँ सुभ दिन साधा। कहेउ जान बन केहिं अपराधा।।<br />अपराधा॥तात सुनावहु मोहि निदानू। को दिनकर कुल भयउ कृसानू।।<br />कृसानू॥दो0-निरखि राम रुख सचिवसुत कारनु कहेउ बुझाइ।<br /> सुनि प्रसंगु रहि मूक जिमि दसा बरनि नहिं जाइ।।54।।<br />जाइ॥54॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />राखि न सकइ न कहि सक जाहू। दुहूँ भाँति उर दारुन दाहू।।<br />दाहू॥लिखत सुधाकर गा लिखि राहू। बिधि गति बाम सदा सब काहू।।<br />काहू॥धरम सनेह उभयँ मति घेरी। भइ गति साँप छुछुंदरि केरी।।<br />केरी॥राखउँ सुतहि करउँ अनुरोधू। धरमु जाइ अरु बंधु बिरोधू।।<br />बिरोधू॥कहउँ जान बन तौ बड़ि हानी। संकट सोच बिबस भइ रानी।।<br />रानी॥बहुरि समुझि तिय धरमु सयानी। रामु भरतु दोउ सुत सम जानी।।<br />जानी॥सरल सुभाउ राम महतारी। बोली बचन धीर धरि भारी।।<br />भारी॥तात जाउँ बलि कीन्हेहु नीका। पितु आयसु सब धरमक टीका।।<br />टीका॥दो0-राजु देन कहि दीन्ह बनु मोहि न सो दुख लेसु।<br /> तुम्ह बिनु भरतहि भूपतिहि प्रजहि प्रचंड कलेसु।।55।।<br />कलेसु॥55॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />जौं केवल पितु आयसु ताता। तौ जनि जाहु जानि बड़ि माता।।<br />माता॥जौं पितु मातु कहेउ बन जाना। तौं कानन सत अवध समाना।।<br />समाना॥पितु बनदेव मातु बनदेवी। खग मृग चरन सरोरुह सेवी।।<br />सेवी॥अंतहुँ उचित नृपहि बनबासू। बय बिलोकि हियँ होइ हराँसू।।<br />हराँसू॥बड़भागी बनु अवध अभागी। जो रघुबंसतिलक तुम्ह त्यागी।।<br />त्यागी॥जौं सुत कहौ संग मोहि लेहू। तुम्हरे हृदयँ होइ संदेहू।।<br />संदेहू॥पूत परम प्रिय तुम्ह सबही के। प्रान प्रान के जीवन जी के।।<br />के॥ते तुम्ह कहहु मातु बन जाऊँ। मैं सुनि बचन बैठि पछिताऊँ।।<br />पछिताऊँ॥दो0-यह बिचारि नहिं करउँ हठ झूठ सनेहु बढ़ाइ।<br /> मानि मातु कर नात बलि सुरति बिसरि जनि जाइ।।56।।<br />जाइ॥56॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />देव पितर सब तुन्हहि गोसाई। राखहुँ पलक नयन की नाई।।<br />नाई॥अवधि अंबु प्रिय परिजन मीना। तुम्ह करुनाकर धरम धुरीना।।<br />धुरीना॥अस बिचारि सोइ करहु उपाई। सबहि जिअत जेहिं भेंटेहु आई।।<br />आई॥जाहु सुखेन बनहि बलि जाऊँ। करि अनाथ जन परिजन गाऊँ।।<br />गाऊँ॥सब कर आजु सुकृत फल बीता। भयउ कराल कालु बिपरीता।।<br />बिपरीता॥बहुबिधि बिलपि चरन लपटानी। परम अभागिनि आपुहि जानी।।<br />जानी॥दारुन दुसह दाहु उर ब्यापा। बरनि न जाहिं बिलाप कलापा।।<br />कलापा॥राम उठाइ मातु उर लाई। कहि मृदु बचन बहुरि समुझाई।।<br />समुझाई॥दो0-समाचार तेहि समय सुनि सीय उठी अकुलाइ।<br /> जाइ सासु पद कमल जुग बंदि बैठि सिरु नाइ।।57।।<br />नाइ॥57॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />दीन्हि असीस सासु मृदु बानी। अति सुकुमारि देखि अकुलानी।।<br />अकुलानी॥बैठि नमितमुख सोचति सीता। रूप रासि पति प्रेम पुनीता।।<br />पुनीता॥चलन चहत बन जीवननाथू। केहि सुकृती सन होइहि साथू।।<br />साथू॥की तनु प्रान कि केवल प्राना। बिधि करतबु कछु जाइ न जाना।।<br />जाना॥चारु चरन नख लेखति धरनी। नूपुर मुखर मधुर कबि बरनी।।<br />बरनी॥मनहुँ प्रेम बस बिनती करहीं। हमहि सीय पद जनि परिहरहीं।।<br />परिहरहीं॥मंजु बिलोचन मोचति बारी। बोली देखि राम महतारी।।<br />महतारी॥तात सुनहु सिय अति सुकुमारी। सासु ससुर परिजनहि पिआरी।।<br />पिआरी॥दो0-पिता जनक भूपाल मनि ससुर भानुकुल भानु।<br /> पति रबिकुल कैरव बिपिन बिधु गुन रूप निधानु।।58।।<br />निधानु॥58॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />मैं पुनि पुत्रबधू प्रिय पाई। रूप रासि गुन सील सुहाई।।<br />सुहाई॥नयन पुतरि करि प्रीति बढ़ाई। राखेउँ प्रान जानिकिहिं लाई।।<br />लाई॥कलपबेलि जिमि बहुबिधि लाली। सींचि सनेह सलिल प्रतिपाली।।<br />प्रतिपाली॥फूलत फलत भयउ बिधि बामा। जानि न जाइ काह परिनामा।।<br />परिनामा॥पलँग पीठ तजि गोद हिंड़ोरा। सियँ न दीन्ह पगु अवनि कठोरा।।<br />कठोरा॥जिअनमूरि जिमि जोगवत रहऊँ। दीप बाति नहिं टारन कहऊँ।।<br />कहऊँ॥सोइ सिय चलन चहति बन साथा। आयसु काह होइ रघुनाथा।<br />चंद किरन रस रसिक चकोरी। रबि रुख नयन सकइ किमि जोरी।।<br />जोरी॥दो0-करि केहरि निसिचर चरहिं दुष्ट जंतु बन भूरि।<br /> बिष बाटिकाँ कि सोह सुत सुभग सजीवनि मूरि।।59।।<br />मूरि॥59॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />बन हित कोल किरात किसोरी। रचीं बिरंचि बिषय सुख भोरी।।<br />भोरी॥पाइन कृमि जिमि कठिन सुभाऊ। तिन्हहि कलेसु न कानन काऊ।।<br />काऊ॥कै तापस तिय कानन जोगू। जिन्ह तप हेतु तजा सब भोगू।।<br />भोगू॥सिय बन बसिहि तात केहि भाँती। चित्रलिखित कपि देखि डेराती।।<br />डेराती॥सुरसर सुभग बनज बन चारी। डाबर जोगु कि हंसकुमारी।।<br />हंसकुमारी॥अस बिचारि जस आयसु होई। मैं सिख देउँ जानकिहि सोई।।<br />सोई॥जौं सिय भवन रहै कह अंबा। मोहि कहँ होइ बहुत अवलंबा।।<br />अवलंबा॥सुनि रघुबीर मातु प्रिय बानी। सील सनेह सुधाँ जनु सानी।।<br />सानी॥दो0-कहि प्रिय बचन बिबेकमय कीन्हि मातु परितोष।<br /> लगे प्रबोधन जानकिहि प्रगटि बिपिन गुन दोष।।60।।<br />दोष॥60॥  मासपारायण, चौदहवाँ विश्राम<br /> &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />मातु समीप कहत सकुचाहीं। बोले समउ समुझि मन माहीं।।<br />माहीं॥राजकुमारि सिखावन सुनहू। आन भाँति जियँ जनि कछु गुनहू।।<br />गुनहू॥आपन मोर नीक जौं चहहू। बचनु हमार मानि गृह रहहू।।<br />रहहू॥आयसु मोर सासु सेवकाई। सब बिधि भामिनि भवन भलाई।।<br />भलाई॥एहि ते अधिक धरमु नहिं दूजा। सादर सासु ससुर पद पूजा।।<br />पूजा॥जब जब मातु करिहि सुधि मोरी। होइहि प्रेम बिकल मति भोरी।।<br />भोरी॥तब तब तुम्ह कहि कथा पुरानी। सुंदरि समुझाएहु मृदु बानी।।<br />बानी॥कहउँ सुभायँ सपथ सत मोही। सुमुखि मातु हित राखउँ तोही।।<br />तोही॥दो0-गुर श्रुति संमत धरम फलु पाइअ बिनहिं कलेस।<br /> हठ बस सब संकट सहे गालव नहुष नरेस।।61।।<br />नरेस॥61॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />मैं पुनि करि प्रवान पितु बानी। बेगि फिरब सुनु सुमुखि सयानी।।<br />सयानी॥दिवस जात नहिं लागिहि बारा। सुंदरि सिखवनु सुनहु हमारा।।<br />हमारा॥जौ हठ करहु प्रेम बस बामा। तौ तुम्ह दुखु पाउब परिनामा।।<br />परिनामा॥काननु कठिन भयंकरु भारी। घोर घामु हिम बारि बयारी।।<br />बयारी॥कुस कंटक मग काँकर नाना। चलब पयादेहिं बिनु पदत्राना।।<br />पदत्राना॥चरन कमल मुदु मंजु तुम्हारे। मारग अगम भूमिधर भारे।।<br />भारे॥कंदर खोह नदीं नद नारे। अगम अगाध न जाहिं निहारे।।<br />निहारे॥भालु बाघ बृक केहरि नागा। करहिं नाद सुनि धीरजु भागा।।<br />भागा॥दो0-भूमि सयन बलकल बसन असनु कंद फल मूल।<br /> ते कि सदा सब दिन मिलिहिं सबुइ समय अनुकूल।।62।।<br />अनुकूल॥62॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />नर अहार रजनीचर चरहीं। कपट बेष बिधि कोटिक करहीं।।<br />करहीं॥लागइ अति पहार कर पानी। बिपिन बिपति नहिं जाइ बखानी।।<br />बखानी॥ब्याल कराल बिहग बन घोरा। निसिचर निकर नारि नर चोरा।।<br />चोरा॥डरपहिं धीर गहन सुधि आएँ। मृगलोचनि तुम्ह भीरु सुभाएँ।।<br />सुभाएँ॥हंसगवनि तुम्ह नहिं बन जोगू। सुनि अपजसु मोहि देइहि लोगू।।<br />लोगू॥मानस सलिल सुधाँ प्रतिपाली। जिअइ कि लवन पयोधि मराली।।<br />मराली॥नव रसाल बन बिहरनसीला। सोह कि कोकिल बिपिन करीला।।<br />करीला॥रहहु भवन अस हृदयँ बिचारी। चंदबदनि दुखु कानन भारी।।<br />भारी॥दो0-सहज सुह्द गुर स्वामि सिख जो न करइ सिर मानि।।<br />मानि॥ सो पछिताइ अघाइ उर अवसि होइ हित हानि।।63।।<br />हानि॥63॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />सुनि मृदु बचन मनोहर पिय के। लोचन ललित भरे जल सिय के।।<br />के॥सीतल सिख दाहक भइ कैंसें। चकइहि सरद चंद निसि जैंसें।।<br />जैंसें॥उतरु न आव बिकल बैदेही। तजन चहत सुचि स्वामि सनेही।।<br />सनेही॥बरबस रोकि बिलोचन बारी। धरि धीरजु उर अवनिकुमारी।।<br />अवनिकुमारी॥लागि सासु पग कह कर जोरी। छमबि देबि बड़ि अबिनय मोरी।।<br />मोरी॥दीन्हि प्रानपति मोहि सिख सोई। जेहि बिधि मोर परम हित होई।।<br />होई॥मैं पुनि समुझि दीखि मन माहीं। पिय बियोग सम दुखु जग नाहीं।।<br />नाहीं॥दो0- प्राननाथ करुनायतन सुंदर सुखद सुजान।<br /> तुम्ह बिनु रघुकुल कुमुद बिधु सुरपुर नरक समान।।64।।<br />समान॥64॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />मातु पिता भगिनी प्रिय भाई। प्रिय परिवारु सुह्रद समुदाई।।<br />समुदाई॥सासु ससुर गुर सजन सहाई। सुत सुंदर सुसील सुखदाई।।<br />सुखदाई॥जहँ लगि नाथ नेह अरु नाते। पिय बिनु तियहि तरनिहु ते ताते।।<br />ताते॥तनु धनु धामु धरनि पुर राजू। पति बिहीन सबु सोक समाजू।।<br />समाजू॥भोग रोगसम भूषन भारू। जम जातना सरिस संसारू।।<br />संसारू॥प्राननाथ तुम्ह बिनु जग माहीं। मो कहुँ सुखद कतहुँ कछु नाहीं।।<br />नाहीं॥जिय बिनु देह नदी बिनु बारी। तैसिअ नाथ पुरुष बिनु नारी।।<br />नारी॥नाथ सकल सुख साथ तुम्हारें। सरद बिमल बिधु बदनु निहारें।।<br />निहारें॥दो0-खग मृग परिजन नगरु बनु बलकल बिमल दुकूल।<br /> नाथ साथ सुरसदन सम परनसाल सुख मूल।।65।।<br />मूल॥65॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />बनदेवीं बनदेव उदारा। करिहहिं सासु ससुर सम सारा।।<br />सारा॥कुस किसलय साथरी सुहाई। प्रभु सँग मंजु मनोज तुराई।।<br />तुराई॥कंद मूल फल अमिअ अहारू। अवध सौध सत सरिस पहारू।।<br />पहारू॥छिनु छिनु प्रभु पद कमल बिलोकि। रहिहउँ मुदित दिवस जिमि कोकी।।<br />कोकी॥बन दुख नाथ कहे बहुतेरे। भय बिषाद परिताप घनेरे।।<br />घनेरे॥प्रभु बियोग लवलेस समाना। सब मिलि होहिं न कृपानिधाना।।<br />कृपानिधाना॥अस जियँ जानि सुजान सिरोमनि। लेइअ संग मोहि छाड़िअ जनि।।<br />जनि॥बिनती बहुत करौं का स्वामी। करुनामय उर अंतरजामी।।<br />अंतरजामी॥दो0-राखिअ अवध जो अवधि लगि रहत न जनिअहिं प्रान।<br /> दीनबंधु संदर सुखद सील सनेह निधान।।66।।<br />निधान॥66॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />मोहि मग चलत न होइहि हारी। छिनु छिनु चरन सरोज निहारी।।<br />निहारी॥सबहि भाँति पिय सेवा करिहौं। मारग जनित सकल श्रम हरिहौं।।<br />हरिहौं॥पाय पखारी बैठि तरु छाहीं। करिहउँ बाउ मुदित मन माहीं।।<br />माहीं॥श्रम कन सहित स्याम तनु देखें। कहँ दुख समउ प्रानपति पेखें।।<br />पेखें॥सम महि तृन तरुपल्लव डासी। पाग पलोटिहि सब निसि दासी।।<br />दासी॥बारबार मृदु मूरति जोही। लागहि तात बयारि न मोही।<br />को प्रभु सँग मोहि चितवनिहारा। सिंघबधुहि जिमि ससक सिआरा।।<br />सिआरा॥मैं सुकुमारि नाथ बन जोगू। तुम्हहि उचित तप मो कहुँ भोगू।।<br />भोगू॥दो0-ऐसेउ बचन कठोर सुनि जौं न ह्रदउ बिलगान।<br /> तौ प्रभु बिषम बियोग दुख सहिहहिं पावँर प्रान।।67।।<br />प्रान॥67॥ &#8211;*&#8211;*&#8211; </p><p>अस कहि सीय बिकल भइ भारी। बचन बियोगु न सकी सँभारी।।<br />सँभारी॥देखि दसा रघुपति जियँ जाना। हठि राखें नहिं राखिहि प्राना।।<br />प्राना॥कहेउ कृपाल भानुकुलनाथा। परिहरि सोचु चलहु बन साथा।।<br />साथा॥नहिं बिषाद कर अवसरु आजू। बेगि करहु बन गवन समाजू।।<br />समाजू॥कहि प्रिय बचन प्रिया समुझाई। लगे मातु पद आसिष पाई।।<br />पाई॥बेगि प्रजा दुख मेटब आई। जननी निठुर बिसरि जनि जाई।।<br />जाई॥फिरहि दसा बिधि बहुरि कि मोरी। देखिहउँ नयन मनोहर जोरी।।<br />जोरी॥सुदिन सुघरी तात कब होइहि। जननी जिअत बदन बिधु जोइहि।।<br />जोइहि॥दो0-बहुरि बच्छ कहि लालु कहि रघुपति रघुबर तात।<br /> कबहिं बोलाइ लगाइ हियँ हरषि निरखिहउँ गात।।68।।<br />गात॥68॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />लखि सनेह कातरि महतारी। बचनु न आव बिकल भइ भारी।।<br />भारी॥राम प्रबोधु कीन्ह बिधि नाना। समउ सनेहु न जाइ बखाना।।<br />बखाना॥तब जानकी सासु पग लागी। सुनिअ माय मैं परम अभागी।।<br />अभागी॥सेवा समय दैअँ बनु दीन्हा। मोर मनोरथु सफल न कीन्हा।।<br />कीन्हा॥तजब छोभु जनि छाड़िअ छोहू। करमु कठिन कछु दोसु न मोहू।।<br />मोहू॥सुनि सिय बचन सासु अकुलानी। दसा कवनि बिधि कहौं बखानी।।<br />बखानी॥बारहि बार लाइ उर लीन्ही। धरि धीरजु सिख आसिष दीन्ही।।<br />दीन्ही॥अचल होउ अहिवातु तुम्हारा। जब लगि गंग जमुन जल धारा।।<br />धारा॥ दो0-सीतहि सासु असीस सिख दीन्हि अनेक प्रकार।<br /> चली नाइ पद पदुम सिरु अति हित बारहिं बार।।69।।<br />बार॥69॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />समाचार जब लछिमन पाए। ब्याकुल बिलख बदन उठि धाए।।<br />धाए॥कंप पुलक तन नयन सनीरा। गहे चरन अति प्रेम अधीरा।।<br />अधीरा॥कहि न सकत कछु चितवत ठाढ़े। मीनु दीन जनु जल तें काढ़े।।<br />काढ़े॥सोचु हृदयँ बिधि का होनिहारा। सबु सुखु सुकृत सिरान हमारा।।<br />हमारा॥मो कहुँ काह कहब रघुनाथा। रखिहहिं भवन कि लेहहिं साथा।।<br />साथा॥राम बिलोकि बंधु कर जोरें। देह गेह सब सन तृनु तोरें।।<br />तोरें॥बोले बचनु राम नय नागर। सील सनेह सरल सुख सागर।।<br />सागर॥तात प्रेम बस जनि कदराहू। समुझि हृदयँ परिनाम उछाहू।।<br />उछाहू॥दो0-मातु पिता गुरु स्वामि सिख सिर धरि करहि सुभायँ।<br /> लहेउ लाभु तिन्ह जनम कर नतरु जनमु जग जायँ।।70।।<br />जायँ॥70॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />अस जियँ जानि सुनहु सिख भाई। करहु मातु पितु पद सेवकाई।।<br />सेवकाई॥भवन भरतु रिपुसूदन नाहीं। राउ बृद्ध मम दुखु मन माहीं।।<br />माहीं॥मैं बन जाउँ तुम्हहि लेइ साथा। होइ सबहि बिधि अवध अनाथा।।<br />अनाथा॥गुरु पितु मातु प्रजा परिवारू। सब कहुँ परइ दुसह दुख भारू।।<br />भारू॥रहहु करहु सब कर परितोषू। नतरु तात होइहि बड़ दोषू।।<br />दोषू॥जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृपु अवसि नरक अधिकारी।।<br />अधिकारी॥रहहु तात असि नीति बिचारी। सुनत लखनु भए ब्याकुल भारी।।<br />भारी॥सिअरें बचन सूखि गए कैंसें। परसत तुहिन तामरसु जैसें।।<br />जैसें॥दो0-उतरु न आवत प्रेम बस गहे चरन अकुलाइ।<br /> नाथ दासु मैं स्वामि तुम्ह तजहु त काह बसाइ।।71।।<br />बसाइ॥71॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />दीन्हि मोहि सिख नीकि गोसाईं। लागि अगम अपनी कदराईं।।<br />कदराईं॥नरबर धीर धरम धुर धारी। निगम नीति कहुँ ते अधिकारी।।<br />अधिकारी॥मैं सिसु प्रभु सनेहँ प्रतिपाला। मंदरु मेरु कि लेहिं मराला।।<br />मराला॥गुर पितु मातु न जानउँ काहू। कहउँ सुभाउ नाथ पतिआहू।।<br />पतिआहू॥जहँ लगि जगत सनेह सगाई। प्रीति प्रतीति निगम निजु गाई।।<br />गाई॥मोरें सबइ एक तुम्ह स्वामी। दीनबंधु उर अंतरजामी।।<br />अंतरजामी॥धरम नीति उपदेसिअ ताही। कीरति भूति सुगति प्रिय जाही।।<br />जाही॥मन क्रम बचन चरन रत होई। कृपासिंधु परिहरिअ कि सोई।।<br />सोई॥दो0-करुनासिंधु सुबंध के सुनि मृदु बचन बिनीत।<br /> समुझाए उर लाइ प्रभु जानि सनेहँ सभीत।।72।।<br />सभीत॥72॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />मागहु बिदा मातु सन जाई। आवहु बेगि चलहु बन भाई।।<br />भाई॥मुदित भए सुनि रघुबर बानी। भयउ लाभ बड़ गइ बड़ि हानी।।<br />हानी॥हरषित ह्दयँ मातु पहिं आए। मनहुँ अंध फिरि लोचन पाए।<br />जाइ जननि पग नायउ माथा। मनु रघुनंदन जानकि साथा।।<br />साथा॥पूँछे मातु मलिन मन देखी। लखन कही सब कथा बिसेषी।।<br />बिसेषी॥गई सहमि सुनि बचन कठोरा। मृगी देखि दव जनु चहु ओरा।।<br />ओरा॥लखन लखेउ भा अनरथ आजू। एहिं सनेह बस करब अकाजू।।<br />अकाजू॥मागत बिदा सभय सकुचाहीं। जाइ संग बिधि कहिहि कि नाही।।<br />नाही॥दो0-समुझि सुमित्राँ राम सिय रूप सुसीलु सुभाउ।<br /> नृप सनेहु लखि धुनेउ सिरु पापिनि दीन्ह कुदाउ।।73।।<br />कुदाउ॥73॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />धीरजु धरेउ कुअवसर जानी। सहज सुह्द बोली मृदु बानी।।<br />बानी॥तात तुम्हारि मातु बैदेही। पिता रामु सब भाँति सनेही।।<br />सनेही॥अवध तहाँ जहँ राम निवासू। तहँइँ दिवसु जहँ भानु प्रकासू।।<br />प्रकासू॥जौ पै सीय रामु बन जाहीं। अवध तुम्हार काजु कछु नाहिं।।<br />नाहिं॥गुर पितु मातु बंधु सुर साई। सेइअहिं सकल प्रान की नाईं।।<br />नाईं॥रामु प्रानप्रिय जीवन जी के। स्वारथ रहित सखा सबही कै।।<br />कै॥पूजनीय प्रिय परम जहाँ तें। सब मानिअहिं राम के नातें।।<br />नातें॥अस जियँ जानि संग बन जाहू। लेहु तात जग जीवन लाहू।।<br />लाहू॥दो0-भूरि भाग भाजनु भयहु मोहि समेत बलि जाउँ।<br /> जौम तुम्हरें मन छाड़ि छलु कीन्ह राम पद ठाउँ।।74।।<br />ठाउँ॥74॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />पुत्रवती जुबती जग सोई। रघुपति भगतु जासु सुतु होई।।<br />होई॥नतरु बाँझ भलि बादि बिआनी। राम बिमुख सुत तें हित जानी।।<br />जानी॥तुम्हरेहिं भाग रामु बन जाहीं। दूसर हेतु तात कछु नाहीं।।<br />नाहीं॥सकल सुकृत कर बड़ फलु एहू। राम सीय पद सहज सनेहू।।<br />सनेहू॥राग रोषु इरिषा मदु मोहू। जनि सपनेहुँ इन्ह के बस होहू।।<br />होहू॥सकल प्रकार बिकार बिहाई। मन क्रम बचन करेहु सेवकाई।।<br />सेवकाई॥तुम्ह कहुँ बन सब भाँति सुपासू। सँग पितु मातु रामु सिय जासू।।<br />जासू॥जेहिं न रामु बन लहहिं कलेसू। सुत सोइ करेहु इहइ उपदेसू।।<br />उपदेसू॥छं0-उपदेसु यहु जेहिं तात तुम्हरे राम सिय सुख पावहीं।<br /> पितु मातु प्रिय परिवार पुर सुख सुरति बन बिसरावहीं।<br /> तुलसी प्रभुहि सिख देइ आयसु दीन्ह पुनि आसिष दई।<br /> रति होउ अबिरल अमल सिय रघुबीर पद नित नित नई।।<br />नई॥सो0-मातु चरन सिरु नाइ चले तुरत संकित हृदयँ।<br /> बागुर बिषम तोराइ मनहुँ भाग मृगु भाग बस।।75।।<br />बस॥75॥ गए लखनु जहँ जानकिनाथू। भे मन मुदित पाइ प्रिय साथू।।<br />साथू॥बंदि राम सिय चरन सुहाए। चले संग नृपमंदिर आए।।<br />आए॥कहहिं परसपर पुर नर नारी। भलि बनाइ बिधि बात बिगारी।।<br />बिगारी॥तन कृस दुखु बदन मलीने। बिकल मनहुँ माखी मधु छीने।।<br />छीने॥कर मीजहिं सिरु धुनि पछिताहीं। जनु बिन पंख बिहग अकुलाहीं।।<br />अकुलाहीं॥भइ बड़ि भीर भूप दरबारा। बरनि न जाइ बिषादु अपारा।।<br />अपारा॥सचिवँ उठाइ राउ बैठारे। कहि प्रिय बचन रामु पगु धारे।।<br />धारे॥सिय समेत दोउ तनय निहारी। ब्याकुल भयउ भूमिपति भारी।।<br />भारी॥दो0-सीय सहित सुत सुभग दोउ देखि देखि अकुलाइ।<br /> बारहिं बार सनेह बस राउ लेइ उर लाइ।।76।।<br />लाइ॥76॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />सकइ न बोलि बिकल नरनाहू। सोक जनित उर दारुन दाहू।।<br />दाहू॥नाइ सीसु पद अति अनुरागा। उठि रघुबीर बिदा तब मागा।।<br />मागा॥पितु असीस आयसु मोहि दीजै। हरष समय बिसमउ कत कीजै।।<br />कीजै॥तात किएँ प्रिय प्रेम प्रमादू। जसु जग जाइ होइ अपबादू।।<br />अपबादू॥सुनि सनेह बस उठि नरनाहाँ। बैठारे रघुपति गहि बाहाँ।।<br />बाहाँ॥सुनहु तात तुम्ह कहुँ मुनि कहहीं। रामु चराचर नायक अहहीं।।<br />अहहीं॥सुभ अरु असुभ करम अनुहारी। ईस देइ फलु ह्दयँ बिचारी।।<br />बिचारी॥करइ जो करम पाव फल सोई। निगम नीति असि कह सबु कोई।।<br />कोई॥दो0&#8211;औरु दो0–औरु करै अपराधु कोउ और पाव फल भोगु।<br /> अति बिचित्र भगवंत गति को जग जानै जोगु।।77।।<br />जोगु॥77॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />रायँ राम राखन हित लागी। बहुत उपाय किए छलु त्यागी।।<br />त्यागी॥लखी राम रुख रहत न जाने। धरम धुरंधर धीर सयाने।।<br />सयाने॥तब नृप सीय लाइ उर लीन्ही। अति हित बहुत भाँति सिख दीन्ही।।<br />दीन्ही॥कहि बन के दुख दुसह सुनाए। सासु ससुर पितु सुख समुझाए।।<br />समुझाए॥सिय मनु राम चरन अनुरागा। घरु न सुगमु बनु बिषमु न लागा।।<br />लागा॥औरउ सबहिं सीय समुझाई। कहि कहि बिपिन बिपति अधिकाई।।<br />अधिकाई॥सचिव नारि गुर नारि सयानी। सहित सनेह कहहिं मृदु बानी।।<br />बानी॥तुम्ह कहुँ तौ न दीन्ह बनबासू। करहु जो कहहिं ससुर गुर सासू।।<br />सासू॥दो0&#8211;सिख दो0–सिख सीतलि हित मधुर मृदु सुनि सीतहि न सोहानि।<br /> सरद चंद चंदनि लगत जनु चकई अकुलानि।।78।।<br />अकुलानि॥78॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />सीय सकुच बस उतरु न देई। सो सुनि तमकि उठी कैकेई।।<br />कैकेई॥मुनि पट भूषन भाजन आनी। आगें धरि बोली मृदु बानी।।<br />बानी॥नृपहि प्रान प्रिय तुम्ह रघुबीरा। सील सनेह न छाड़िहि भीरा।।<br />भीरा॥सुकृत सुजसु परलोकु नसाऊ। तुम्हहि जान बन कहिहि न काऊ।।<br />काऊ॥अस बिचारि सोइ करहु जो भावा। राम जननि सिख सुनि सुखु पावा।।<br />पावा॥भूपहि बचन बानसम लागे। करहिं न प्रान पयान अभागे।।<br />अभागे॥लोग बिकल मुरुछित नरनाहू। काह करिअ कछु सूझ न काहू।।<br />काहू॥रामु तुरत मुनि बेषु बनाई। चले जनक जननिहि सिरु नाई।।<br />नाई॥दो0-सजि बन साजु समाजु सबु बनिता बंधु समेत।<br /> बंदि बिप्र गुर चरन प्रभु चले करि सबहि अचेत।।79।।<br />अचेत॥79॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />निकसि बसिष्ठ द्वार भए ठाढ़े। देखे लोग बिरह दव दाढ़े।।<br />दाढ़े॥कहि प्रिय बचन सकल समुझाए। बिप्र बृंद रघुबीर बोलाए।।<br />बोलाए॥गुर सन कहि बरषासन दीन्हे। आदर दान बिनय बस कीन्हे।।<br />कीन्हे॥जाचक दान मान संतोषे। मीत पुनीत प्रेम परितोषे।।<br />परितोषे॥दासीं दास बोलाइ बहोरी। गुरहि सौंपि बोले कर जोरी।।<br />जोरी॥सब कै सार सँभार गोसाईं। करबि जनक जननी की नाई।।<br />नाई॥बारहिं बार जोरि जुग पानी। कहत रामु सब सन मृदु बानी।।<br />बानी॥सोइ सब भाँति मोर हितकारी। जेहि तें रहै भुआल सुखारी।।<br />सुखारी॥दो0-मातु सकल मोरे बिरहँ जेहिं न होहिं दुख दीन।<br /> सोइ उपाउ तुम्ह करेहु सब पुर जन परम प्रबीन।।80।।<br />प्रबीन॥80॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />एहि बिधि राम सबहि समुझावा। गुर पद पदुम हरषि सिरु नावा।<br />गनपती गौरि गिरीसु मनाई। चले असीस पाइ रघुराई।।<br />रघुराई॥राम चलत अति भयउ बिषादू। सुनि न जाइ पुर आरत नादू।।<br />नादू॥कुसगुन लंक अवध अति सोकू। हहरष बिषाद बिबस सुरलोकू।।<br />सुरलोकू॥गइ मुरुछा तब भूपति जागे। बोलि सुमंत्रु कहन अस लागे।।<br />लागे॥रामु चले बन प्रान न जाहीं। केहि सुख लागि रहत तन माहीं।<br />एहि तें कवन ब्यथा बलवाना। जो दुखु पाइ तजहिं तनु प्राना।।<br />प्राना॥पुनि धरि धीर कहइ नरनाहू। लै रथु संग सखा तुम्ह जाहू।।<br />जाहू॥दो0&#8211;सुठि दो0–सुठि सुकुमार कुमार दोउ जनकसुता सुकुमारि।<br /> रथ चढ़ाइ देखराइ बनु फिरेहु गएँ दिन चारि।।81।।<br />चारि॥81॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />जौ नहिं फिरहिं धीर दोउ भाई। सत्यसंध दृढ़ब्रत रघुराई।।<br />रघुराई॥तौ तुम्ह बिनय करेहु कर जोरी। फेरिअ प्रभु मिथिलेसकिसोरी।।<br />मिथिलेसकिसोरी॥जब सिय कानन देखि डेराई। कहेहु मोरि सिख अवसरु पाई।।<br />पाई॥सासु ससुर अस कहेउ सँदेसू। पुत्रि फिरिअ बन बहुत कलेसू।।<br />कलेसू॥पितृगृह कबहुँ कबहुँ ससुरारी। रहेहु जहाँ रुचि होइ तुम्हारी।।<br />तुम्हारी॥एहि बिधि करेहु उपाय कदंबा। फिरइ त होइ प्रान अवलंबा।।<br />अवलंबा॥नाहिं त मोर मरनु परिनामा। कछु न बसाइ भएँ बिधि बामा।।<br />बामा॥अस कहि मुरुछि परा महि राऊ। रामु लखनु सिय आनि देखाऊ।।<br />देखाऊ॥दो0&#8211;पाइ दो0–पाइ रजायसु नाइ सिरु रथु अति बेग बनाइ।<br /> गयउ जहाँ बाहेर नगर सीय सहित दोउ भाइ।।82।।<br />भाइ॥82॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />तब सुमंत्र नृप बचन सुनाए। करि बिनती रथ रामु चढ़ाए।।<br />चढ़ाए॥चढ़ि रथ सीय सहित दोउ भाई। चले हृदयँ अवधहि सिरु नाई।।<br />नाई॥चलत रामु लखि अवध अनाथा। बिकल लोग सब लागे साथा।।<br />साथा॥कृपासिंधु बहुबिधि समुझावहिं। फिरहिं प्रेम बस पुनि फिरि आवहिं।।<br />आवहिं॥लागति अवध भयावनि भारी। मानहुँ कालराति अँधिआरी।।<br />अँधिआरी॥घोर जंतु सम पुर नर नारी। डरपहिं एकहि एक निहारी।।<br />निहारी॥घर मसान परिजन जनु भूता। सुत हित मीत मनहुँ जमदूता।।<br />जमदूता॥बागन्ह बिटप बेलि कुम्हिलाहीं। सरित सरोवर देखि न जाहीं।।<br />जाहीं॥दो0-हय गय कोटिन्ह केलिमृग पुरपसु चातक मोर।<br /> पिक रथांग सुक सारिका सारस हंस चकोर।।83।।<br />चकोर॥83॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />राम बियोग बिकल सब ठाढ़े। जहँ तहँ मनहुँ चित्र लिखि काढ़े।।<br />काढ़े॥नगरु सफल बनु गहबर भारी। खग मृग बिपुल सकल नर नारी।।<br />नारी॥बिधि कैकेई किरातिनि कीन्ही। जेंहि दव दुसह दसहुँ दिसि दीन्ही।।<br />दीन्ही॥सहि न सके रघुबर बिरहागी। चले लोग सब ब्याकुल भागी।।<br />भागी॥सबहिं बिचार कीन्ह मन माहीं। राम लखन सिय बिनु सुखु नाहीं।।<br />नाहीं॥जहाँ रामु तहँ सबुइ समाजू। बिनु रघुबीर अवध नहिं काजू।।<br />काजू॥चले साथ अस मंत्रु दृढ़ाई। सुर दुर्लभ सुख सदन बिहाई।।<br />बिहाई॥राम चरन पंकज प्रिय जिन्हही। बिषय भोग बस करहिं कि तिन्हही।।<br />तिन्हही॥दो0-बालक बृद्ध बिहाइ गृँह लगे लोग सब साथ।<br /> तमसा तीर निवासु किय प्रथम दिवस रघुनाथ।।84।।<br />रघुनाथ॥84॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />रघुपति प्रजा प्रेमबस देखी। सदय हृदयँ दुखु भयउ बिसेषी।।<br />बिसेषी॥करुनामय रघुनाथ गोसाँई। बेगि पाइअहिं पीर पराई।।<br />पराई॥कहि सप्रेम मृदु बचन सुहाए। बहुबिधि राम लोग समुझाए।।<br />समुझाए॥किए धरम उपदेस घनेरे। लोग प्रेम बस फिरहिं न फेरे।।<br />फेरे॥सीलु सनेहु छाड़ि नहिं जाई। असमंजस बस भे रघुराई।।<br />रघुराई॥लोग सोग श्रम बस गए सोई। कछुक देवमायाँ मति मोई।।<br />मोई॥जबहिं जाम जुग जामिनि बीती। राम सचिव सन कहेउ सप्रीती।।<br />सप्रीती॥खोज मारि रथु हाँकहु ताता। आन उपायँ बनिहि नहिं बाता।।<br />बाता॥दो0-राम लखन सुय जान चढ़ि संभु चरन सिरु नाइ।।<br />नाइ॥ सचिवँ चलायउ तुरत रथु इत उत खोज दुराइ।।85।।<br />दुराइ॥85॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />जागे सकल लोग भएँ भोरू। गे रघुनाथ भयउ अति सोरू।।<br />सोरू॥रथ कर खोज कतहहुँ नहिं पावहिं। राम राम कहि चहु दिसि धावहिं।।<br />धावहिं॥मनहुँ बारिनिधि बूड़ जहाजू। भयउ बिकल बड़ बनिक समाजू।।<br />समाजू॥एकहि एक देंहिं उपदेसू। तजे राम हम जानि कलेसू।।<br />कलेसू॥निंदहिं आपु सराहहिं मीना। धिग जीवनु रघुबीर बिहीना।।<br />बिहीना॥जौं पै प्रिय बियोगु बिधि कीन्हा। तौ कस मरनु न मागें दीन्हा।।<br />दीन्हा॥एहि बिधि करत प्रलाप कलापा। आए अवध भरे परितापा।।<br />परितापा॥बिषम बियोगु न जाइ बखाना। अवधि आस सब राखहिं प्राना।।<br />प्राना॥दो0-राम दरस हित नेम ब्रत लगे करन नर नारि।<br /> मनहुँ कोक कोकी कमल दीन बिहीन तमारि।।86।।<br />तमारि॥86॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />सीता सचिव सहित दोउ भाई। सृंगबेरपुर पहुँचे जाई।।<br />जाई॥उतरे राम देवसरि देखी। कीन्ह दंडवत हरषु बिसेषी।।<br />बिसेषी॥लखन सचिवँ सियँ किए प्रनामा। सबहि सहित सुखु पायउ रामा।।<br />रामा॥गंग सकल मुद मंगल मूला। सब सुख करनि हरनि सब सूला।।<br />सूला॥कहि कहि कोटिक कथा प्रसंगा। रामु बिलोकहिं गंग तरंगा।।<br />तरंगा॥सचिवहि अनुजहि प्रियहि सुनाई। बिबुध नदी महिमा अधिकाई।।<br />अधिकाई॥मज्जनु कीन्ह पंथ श्रम गयऊ। सुचि जलु पिअत मुदित मन भयऊ।।<br />भयऊ॥सुमिरत जाहि मिटइ श्रम भारू। तेहि श्रम यह लौकिक ब्यवहारू।।<br />ब्यवहारू॥दो0-सुध्द सचिदानंदमय कंद भानुकुल केतु।<br /> चरित करत नर अनुहरत संसृति सागर सेतु।।87।।<br />सेतु॥87॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />यह सुधि गुहँ निषाद जब पाई। मुदित लिए प्रिय बंधु बोलाई।।<br />बोलाई॥लिए फल मूल भेंट भरि भारा। मिलन चलेउ हिँयँ हरषु अपारा।।<br />अपारा॥करि दंडवत भेंट धरि आगें। प्रभुहि बिलोकत अति अनुरागें।।<br />अनुरागें॥सहज सनेह बिबस रघुराई। पूँछी कुसल निकट बैठाई।।<br />बैठाई॥नाथ कुसल पद पंकज देखें। भयउँ भागभाजन जन लेखें।।<br />लेखें॥देव धरनि धनु धामु तुम्हारा। मैं जनु नीचु सहित परिवारा।।<br />परिवारा॥कृपा करिअ पुर धारिअ पाऊ। थापिय जनु सबु लोगु सिहाऊ।।<br />सिहाऊ॥कहेहु सत्य सबु सखा सुजाना। मोहि दीन्ह पितु आयसु आना।।<br />आना॥दो0-बरष चारिदस बासु बन मुनि ब्रत बेषु अहारु।<br /> ग्राम बासु नहिं उचित सुनि गुहहि भयउ दुखु भारु।।88।।<br />भारु॥88॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />राम लखन सिय रूप निहारी। कहहिं सप्रेम ग्राम नर नारी।।<br />नारी॥ते पितु मातु कहहु सखि कैसे। जिन्ह पठए बन बालक ऐसे।।<br />ऐसे॥एक कहहिं भल भूपति कीन्हा। लोयन लाहु हमहि बिधि दीन्हा।।<br />दीन्हा॥तब निषादपति उर अनुमाना। तरु सिंसुपा मनोहर जाना।।<br />जाना॥लै रघुनाथहि ठाउँ देखावा। कहेउ राम सब भाँति सुहावा।।<br />सुहावा॥पुरजन करि जोहारु घर आए। रघुबर संध्या करन सिधाए।।<br />सिधाए॥गुहँ सँवारि साँथरी डसाई। कुस किसलयमय मृदुल सुहाई।।<br />सुहाई॥सुचि फल मूल मधुर मृदु जानी। दोना भरि भरि राखेसि पानी।।<br />पानी॥दो0-सिय सुमंत्र भ्राता सहित कंद मूल फल खाइ।<br /> सयन कीन्ह रघुबंसमनि पाय पलोटत भाइ।।89।।<br />भाइ॥89॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />उठे लखनु प्रभु सोवत जानी। कहि सचिवहि सोवन मृदु बानी।।<br />बानी॥कछुक दूर सजि बान सरासन। जागन लगे बैठि बीरासन।।<br />बीरासन॥गुँह बोलाइ पाहरू प्रतीती। ठावँ ठाँव राखे अति प्रीती।।<br />प्रीती॥आपु लखन पहिं बैठेउ जाई। कटि भाथी सर चाप चढ़ाई।।<br />चढ़ाई॥सोवत प्रभुहि निहारि निषादू। भयउ प्रेम बस ह्दयँ बिषादू।।<br />बिषादू॥तनु पुलकित जलु लोचन बहई। बचन सप्रेम लखन सन कहई।।<br />कहई॥भूपति भवन सुभायँ सुहावा। सुरपति सदनु न पटतर पावा।।<br />पावा॥मनिमय रचित चारु चौबारे। जनु रतिपति निज हाथ सँवारे।।<br />सँवारे॥दो0-सुचि सुबिचित्र सुभोगमय सुमन सुगंध सुबास।<br /> पलँग मंजु मनिदीप जहँ सब बिधि सकल सुपास।।90।।<br />सुपास॥90॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />बिबिध बसन उपधान तुराई। छीर फेन मृदु बिसद सुहाई।।<br />सुहाई॥तहँ सिय रामु सयन निसि करहीं। निज छबि रति मनोज मदु हरहीं।।<br />हरहीं॥ते सिय रामु साथरीं सोए। श्रमित बसन बिनु जाहिं न जोए।।<br />जोए॥मातु पिता परिजन पुरबासी। सखा सुसील दास अरु दासी।।<br />दासी॥जोगवहिं जिन्हहि प्रान की नाई। महि सोवत तेइ राम गोसाईं।।<br />गोसाईं॥पिता जनक जग बिदित प्रभाऊ। ससुर सुरेस सखा रघुराऊ।।<br />रघुराऊ॥रामचंदु पति सो बैदेही। सोवत महि बिधि बाम न केही।।<br />केही॥सिय रघुबीर कि कानन जोगू। करम प्रधान सत्य कह लोगू।।<br />लोगू॥दो0-कैकयनंदिनि मंदमति कठिन कुटिलपनु कीन्ह।<br /> जेहीं रघुनंदन जानकिहि सुख अवसर दुखु दीन्ह।।91।।<br />दीन्ह॥91॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />भइ दिनकर कुल बिटप कुठारी। कुमति कीन्ह सब बिस्व दुखारी।।<br />दुखारी॥भयउ बिषादु निषादहि भारी। राम सीय महि सयन निहारी।।<br />निहारी॥बोले लखन मधुर मृदु बानी। ग्यान बिराग भगति रस सानी।।<br />सानी॥काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता।।<br />भ्राता॥जोग बियोग भोग भल मंदा। हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा।।<br />फंदा॥जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू। संपती बिपति करमु अरु कालू।।<br />कालू॥धरनि धामु धनु पुर परिवारू। सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू।।<br />ब्यवहारू॥देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं। मोह मूल परमारथु नाहीं।।<br />नाहीं॥दो0-सपनें होइ भिखारि नृप रंकु नाकपति होइ।<br /> जागें लाभु न हानि कछु तिमि प्रपंच जियँ जोइ।।92।।<br />जोइ॥92॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />अस बिचारि नहिं कीजअ रोसू। काहुहि बादि न देइअ दोसू।।<br />दोसू॥मोह निसाँ सबु सोवनिहारा। देखिअ सपन अनेक प्रकारा।।<br />प्रकारा॥एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच बियोगी।।<br />बियोगी॥जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब जब बिषय बिलास बिरागा।।<br />बिरागा॥होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ चरन अनुरागा।।<br />अनुरागा॥सखा परम परमारथु एहू। मन क्रम बचन राम पद नेहू।।<br />नेहू॥राम ब्रह्म परमारथ रूपा। अबिगत अलख अनादि अनूपा।।<br />अनूपा॥सकल बिकार रहित गतभेदा। कहि नित नेति निरूपहिं बेदा।<br />दो0-भगत भूमि भूसुर सुरभि सुर हित लागि कृपाल।<br /> करत चरित धरि मनुज तनु सुनत मिटहि जग जाल।।93।।<br />जाल॥93॥  मासपारायण, पंद्रहवा विश्राम<br /> &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />सखा समुझि अस परिहरि मोहु। सिय रघुबीर चरन रत होहू।।<br />होहू॥कहत राम गुन भा भिनुसारा। जागे जग मंगल सुखदारा।।<br />सुखदारा॥सकल सोच करि राम नहावा। सुचि सुजान बट छीर मगावा।।<br />मगावा॥अनुज सहित सिर जटा बनाए। देखि सुमंत्र नयन जल छाए।।<br />छाए॥हृदयँ दाहु अति बदन मलीना। कह कर जोरि बचन अति दीना।।<br />दीना॥नाथ कहेउ अस कोसलनाथा। लै रथु जाहु राम कें साथा।।<br />साथा॥बनु देखाइ सुरसरि अन्हवाई। आनेहु फेरि बेगि दोउ भाई।।<br />भाई॥लखनु रामु सिय आनेहु फेरी। संसय सकल सँकोच निबेरी।।<br />निबेरी॥दो0-नृप अस कहेउ गोसाईँ जस कहइ करौं बलि सोइ।<br /> करि बिनती पायन्ह परेउ दीन्ह बाल जिमि रोइ।।94।।<br />रोइ॥94॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />तात कृपा करि कीजिअ सोई। जातें अवध अनाथ न होई।।<br />होई॥मंत्रहि राम उठाइ प्रबोधा। तात धरम मतु तुम्ह सबु सोधा।।<br />सोधा॥सिबि दधीचि हरिचंद नरेसा। सहे धरम हित कोटि कलेसा।।<br />कलेसा॥रंतिदेव बलि भूप सुजाना। धरमु धरेउ सहि संकट नाना।।<br />नाना॥धरमु न दूसर सत्य समाना। आगम निगम पुरान बखाना।।<br />बखाना॥मैं सोइ धरमु सुलभ करि पावा। तजें तिहूँ पुर अपजसु छावा।।<br />छावा॥संभावित कहुँ अपजस लाहू। मरन कोटि सम दारुन दाहू।।<br />दाहू॥तुम्ह सन तात बहुत का कहऊँ। दिएँ उतरु फिरि पातकु लहऊँ।।<br />लहऊँ॥दो0-पितु पद गहि कहि कोटि नति बिनय करब कर जोरि।<br /> चिंता कवनिहु बात कै तात करिअ जनि मोरि।।95।।<br />मोरि॥95॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />तुम्ह पुनि पितु सम अति हित मोरें। बिनती करउँ तात कर जोरें।।<br />जोरें॥सब बिधि सोइ करतब्य तुम्हारें। दुख न पाव पितु सोच हमारें।।<br />हमारें॥सुनि रघुनाथ सचिव संबादू। भयउ सपरिजन बिकल निषादू।।<br />निषादू॥पुनि कछु लखन कही कटु बानी। प्रभु बरजे बड़ अनुचित जानी।।<br />जानी॥सकुचि राम निज सपथ देवाई। लखन सँदेसु कहिअ जनि जाई।।<br />जाई॥कह सुमंत्रु पुनि भूप सँदेसू। सहि न सकिहि सिय बिपिन कलेसू।।<br />कलेसू॥जेहि बिधि अवध आव फिरि सीया। सोइ रघुबरहि तुम्हहि करनीया।।<br />करनीया॥नतरु निपट अवलंब बिहीना। मैं न जिअब जिमि जल बिनु मीना।।<br />मीना॥दो0-मइकें ससरें सकल सुख जबहिं जहाँ मनु मान।।<br />मान॥ तँह तब रहिहि सुखेन सिय जब लगि बिपति बिहान।।96।।<br />बिहान॥96॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />बिनती भूप कीन्ह जेहि भाँती। आरति प्रीति न सो कहि जाती।।<br />जाती॥पितु सँदेसु सुनि कृपानिधाना। सियहि दीन्ह सिख कोटि बिधाना।।<br />बिधाना॥सासु ससुर गुर प्रिय परिवारू। फिरतु त सब कर मिटै खभारू।।<br />खभारू॥सुनि पति बचन कहति बैदेही। सुनहु प्रानपति परम सनेही।।<br />सनेही॥प्रभु करुनामय परम बिबेकी। तनु तजि रहति छाँह किमि छेंकी।।<br />छेंकी॥प्रभा जाइ कहँ भानु बिहाई। कहँ चंद्रिका चंदु तजि जाई।।<br />जाई॥पतिहि प्रेममय बिनय सुनाई। कहति सचिव सन गिरा सुहाई।।<br />सुहाई॥तुम्ह पितु ससुर सरिस हितकारी। उतरु देउँ फिरि अनुचित भारी।।<br />भारी॥दो0-आरति बस सनमुख भइउँ बिलगु न मानब तात।<br /> आरजसुत पद कमल बिनु बादि जहाँ लगि नात।।97।।<br />नात॥97॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />पितु बैभव बिलास मैं डीठा। नृप मनि मुकुट मिलित पद पीठा।।<br />पीठा॥सुखनिधान अस पितु गृह मोरें। पिय बिहीन मन भाव न भोरें।।<br />भोरें॥ससुर चक्कवइ कोसलराऊ। भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ।।<br />प्रभाऊ॥आगें होइ जेहि सुरपति लेई। अरध सिंघासन आसनु देई।।<br />देई॥ससुरु एतादृस अवध निवासू। प्रिय परिवारु मातु सम सासू।।<br />सासू॥बिनु रघुपति पद पदुम परागा। मोहि केउ सपनेहुँ सुखद न लागा।।<br />लागा॥अगम पंथ बनभूमि पहारा। करि केहरि सर सरित अपारा।।<br />अपारा॥कोल किरात कुरंग बिहंगा। मोहि सब सुखद प्रानपति संगा।।<br />संगा॥दो0-सासु ससुर सन मोरि हुँति बिनय करबि परि पायँ।।<br />पायँ॥ मोर सोचु जनि करिअ कछु मैं बन सुखी सुभायँ।।98।।<br />सुभायँ॥98॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />प्राननाथ प्रिय देवर साथा। बीर धुरीन धरें धनु भाथा।।<br />भाथा॥नहिं मग श्रमु भ्रमु दुख मन मोरें। मोहि लगि सोचु करिअ जनि भोरें।।<br />भोरें॥सुनि सुमंत्रु सिय सीतलि बानी। भयउ बिकल जनु फनि मनि हानी।।<br />हानी॥नयन सूझ नहिं सुनइ न काना। कहि न सकइ कछु अति अकुलाना।।<br />अकुलाना॥राम प्रबोधु कीन्ह बहु भाँति। तदपि होति नहिं सीतलि छाती।।<br />छाती॥जतन अनेक साथ हित कीन्हे। उचित उतर रघुनंदन दीन्हे।।<br />दीन्हे॥मेटि जाइ नहिं राम रजाई। कठिन करम गति कछु न बसाई।।<br />बसाई॥राम लखन सिय पद सिरु नाई। फिरेउ बनिक जिमि मूर गवाँई।।<br />गवाँई॥दो0&#8211;रथ दो0–रथ हाँकेउ हय राम तन हेरि हेरि हिहिनाहिं।<br /> देखि निषाद बिषादबस धुनहिं सीस पछिताहिं।।99।।<br />पछिताहिं॥99॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />जासु बियोग बिकल पसु ऐसे। प्रजा मातु पितु जिइहहिं कैसें।।<br />कैसें॥बरबस राम सुमंत्रु पठाए। सुरसरि तीर आपु तब आए।।<br />आए॥मागी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना।।<br />जाना॥चरन कमल रज कहुँ सबु कहई। मानुष करनि मूरि कछु अहई।।<br />अहई॥छुअत सिला भइ नारि सुहाई। पाहन तें न काठ कठिनाई।।<br />कठिनाई॥तरनिउ मुनि घरिनि होइ जाई। बाट परइ मोरि नाव उड़ाई।।<br />उड़ाई॥एहिं प्रतिपालउँ सबु परिवारू। नहिं जानउँ कछु अउर कबारू।।<br />कबारू॥जौ प्रभु पार अवसि गा चहहू। मोहि पद पदुम पखारन कहहू।।<br />कहहू॥छं0-पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं।<br /> मोहि राम राउरि आन दसरथ सपथ सब साची कहौं।।<br />कहौं॥ बरु तीर मारहुँ लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं।<br /> तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौं।।<br />उतारिहौं॥सो0-सुनि केबट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे।<br /> बिहसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन।।100।।तन॥100॥<br /poem>