भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
{{KKCatGhazal}}
<poem>
हम हाज़िर हैं हाथ उठाए रोज़ थोड़ा पिघल रहा हूं मैं सपना जहां, जिधर ले जाएमेरा चेहरा बदल रहा हूं मैं
दरवाज़े पर आस टंगी है मुझको कोई कुरेदकर देखे खिड़की पर लटके हैं साएन बुझा हूं, न जल रहा हूं मैं
तन्हाई में शोर था कितना मेरा आग़ाज कब मुक़र्रर है चीखो तो आवाज़ न आएबारहा कल पे टल रहा हूं मैं
हम सड़कों पे खड़े रह गए यूं गुज़रना हुआ है रिश्तों से सड़कों ने कल धूल उड़ाएजैसे रस्सी पे चल रहा हूं मैं
हर कंधे पर बोझ मेरे हिस्से का आसमां है कितना कहीं कौन कहां दो ख़्वाब टिकाएअब तलक बेदख़ल रहा हूं मैं
उतनी क़ीमत मुझको जाने कहां पहुंचना है खुशियों की हमने जितने दर्द कमाएगिर रहा हूं, संभल रहा हूं मैं
एक तसव्वुर तो ऐसा तेरे सिवा भी हो ज़हां शायद सर रख दूं तो नींद आ जाएतुझसे बाहर निकल रहा हूं मैं
दिल सबके शीशे जैसे हों मेरा मक़ता अभी कहा न गया दर्द उठे तो आंख नहाए आज चैन से जी लेने दो क़सम उसे जो याद आ जाएनामुकम्मल ग़ज़ल रहा हूं मैं
</poem>