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गन्धर्व कवि पंडित नन्दलाल का जन्म पंडित केशवराम के घर गाँव पात्थरआळी, जिला भिवानी (हरियाणा) मे 29-10-1913 को हुआ था | इनके पिता जी केशवराम भी अपने समय मे उच्चकोटि के लोककवि व लोकगायक थे | नन्दलाल जी 5 भाई व 6 बहनों मे 10 वे नम्बर के थे | पांचो भाईयो मे श्री भगवाना राम जो कि जवान अवस्था मे स्वर्ग सिधार गए थे | दुसरे नम्बर पर श्री कुंदनलाल जी, तीसरे नम्बर पर श्री बनवारी लाल जी, चौथे नम्बर पर स्वयं श्री नन्दलाल जी तथा पांचवे नंबर श्री बेगराज जी थे | इनको बचपन से ही कविताई व गायकी का शौक था | इनके पिता श्री केशोराम श्री शंकरदास के शिष्य थे जिन्हें ब्रह्मज्ञानी भी कहते है | ये नन्दलाल जी तीनो सगे भाई कवि थे – नन्दलाल, बेगराज जी, कुंदनलाल जी | इस प्रकार केशोराम जी के शिष्य कुंदन लाल जी थे और कुंदन लाल जी शिष्य श्री नन्दलाल जी और नन्दलाल जी के शिष्य बेगराज जी थे | श्री नन्दलाल जी बचपन मे दिन मे तो गौ चराते थे और रात को बड़े भाई कुंदनलाल जी का जहां भी प्रोग्राम होता था, तो छुप-छुप के सुनने चले जाते थे | उसके बाद थोड़े बड़े होने पर ये हरिराम सांगी– गाँव बहु झोलरी– रोहतक वाले पास रहने लगे | जब इस बात का पता इनके बड़े भाई कुंदनलाल लगा तो उन्होंने इनको अपने पास बुला लिया और अपने साथ बेड़े मे रखने लग गये | उसके बाद नन्दलाल जी ने फिर 13 साल की उम्र मे अपना अलग बेड़ा बांध लिया | उन्होंने अपना पहला प्रोग्राम लगातार 15 दिन तक गाँव चिडावा-राजस्थान मे किया था क्यूंकि ये हमेशा तत्काल ही बनाते थे और तत्काल ही गाते थे | इनकी एक खास बात ये थी कि वो लोगो की फरमाईस पूछते थे कि आप सज्जन पुरुष कोनसे प्रकांड या किस कथा की बात सुनना चाहते हो क्यूंकि इन्होने महाभारत, रामायण, वेद-पुराण, शास्त्र आदि का गहन अध्यन किया हुआ था | ये माता सरस्वती से वरदानी थे, जोकि गौ चराते समय माता सरस्वती ने इनको साक्षात् दर्शन दिए थे | इसलिए इनकी जिह्वा पर माँ सरस्वती का वास था | इनको हरियाणवी लोक साहित्य मे अपने भजनों मे दौड़ (सरड़ा/संगीत) की एक अनोखी कला का सर्वप्रथम शुरुआत करने का श्रेय है, जिसके अन्दर उस प्रसंग का कड़ी से कड़ी सम्पूर्ण सार होता था | इनकी कविता जितनी जटिल थी, उतनी ही रसवती भी थी | इनको महाभारत के 18 के 18 पर्व कंठस्थ याद थे तथा जिनको कविता के रूप मे गाते रहते थे | आज तक हरियाणवी लोकसाहित्य काव्य मे 100 कौरवो और 106 किचको को नाम सिर्फ इन्होने ही अपनी कविताई मे प्रस्तुत किये है अन्यथा किसी भी कवि ने प्रस्तुत नहीं किये | इनकी कविता मे आधी मात्रा की भी त्रुटी नही मिल सकती तथा इनकी रचनओ मे अलंकार व छंद की हमेशा ही भरमार रहती थी, इसलिए नन्दलाल जी प्रत्येक रस के प्रधान कवि थे |
{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=राजेराम भारद्वाज|अनुवादक=|संग्रह=}}{{KKCatHaryanaviRachna}}<poem>
'''दोहा- श्रीकृष्ण जन्म-आत्म मन, नटवर नंद किशोर ।'''
'''सात द्वीप नो खण्ड की, प्रभु थारै हाथ मैं डोर ।।'''
'''दोहा- सकल समूह जन सुन रहे, नभ वाणी कर गौर ।'''
'''अरे कंस कहाँ गह रह्या, कर रथ घोड़ां की डोर ।।'''
</poem>
वैसे तो नन्दलाल जी ज्यादातर सांगीत मंचन व कथा कार्यक्रम दक्षिण हरियाणा व समीपवर्ती राजस्थान के क्षेत्रों मे ही किया करते थे, लेकिन समय समय पर आमंत्रण के तौर पर वे दूर-दराज के क्षेत्रों व अन्य राज्यों मे भी उनको अच्छी खासी ख्याति प्राप्त थी | इसीलिए एक समय का जिक्र है कि सन 1960 मे हरियाणा-पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री प्रताप सिंह कैरव ने एक बार चंडीगढ़ मे लोककवि सम्मलेन करवाया, जिसमे लगभग आस पास के क्षेत्रों से उस समय के महानतम 35 लोककवियों ने भाग लिया | उसके बाद फिर कवि सम्मेलान पूर्ण होने के बाद मुख्यमंत्री जी ने गंधर्व कवि नन्दलाल जी की निम्नलिखित रचना को सुनकर प्रथम पुरस्कार के रूप मे उस समय 1100/- रुपये की राशि प्रदान की तथा मुख्यमंत्री जी ने इस कवि सम्मलेन समारोह के सम्पूर्ण होने की सुचना व प्रथम पुरुस्कार विजेता पंडित नन्दलाल जी को सर्वोत्तम कलाकार के तौर पर उनकी प्रशंसा के रूप मे उन्होंने इसकी सुचना एक अखबार के माध्यम से की |
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'''गुलिस्तान की छवि कहैं, क्या ऐसा आलीशान बण्या,'''
'''सुरपति का आराम कहैं, या मनसिज का अस्थान बण्या।। टेक ।।'''
कर नंदलाल प्रेम से सेवा, तुम पै गुरु दयाल रहैं,
मन मतंग को वश मै कर, ईश्वर का नाम ऐलान बण्या।।
</poem>
उसके बावजूद इतना मानं-सम्मान व ख्याति पाने पर भी उनको कभी भी अहम भाव पैदा नहीं हुआ और इन्होने अपने जीवन मे कभी भी धन का लालच नही किया और सभी प्रोग्रामों के सारे के सारे पैसे हमेशा धार्मिक कार्यों व गरीबो मे ही बाँट देते थे |
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