भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
टूट पड़ी हैं मुझ पर तमाम अप्रिय विपत्तियाँ
खिड़की पर जमा हो गए हैं दुनिया भर के खटके और अलाय-बलाय
बग़ीचे के तमाम जाने-पहचाने परिचित पेड़
जानलेवा फ़ौजी टुकड़ी से झपट पड़े मुझ पर
दम तोड़ता है कोई वीर या मारा जाता है कहीम कोई
दम तोड़ता है मेरा हृदय, जैसे चट्टान पर मछली
दम तोड़ती है मेरी कविता, जैसे उड़ान के बीच बिन्धा पाखी ।पाखी। नीन्द आई, पर अचानक मुझे लगाकि दो काली चीलें मण्डरा रही हैं सिर परकितनी लम्बी भयावह थी रात ! भरने लगे थे मेरे ज़ख़्मउन्हें दुःस्वप्न ने फिर कुरेद दिया रिसने को पहाड़ों में धमाके हुए, ठाँय गूँजी ज़ोरदारमानो चट्टानें फट पड़ी हों रौन्दने कोमानो अँट गई हो धरती रक्त और कूड़े के ढेर सेऐसे में तड़पा मैं बेतरह तुम्हारे लिए भोर ! मेरे लिए इतनी भयावह थी वह रातमानो प्रकृति ने ही हथियार उठा लिए हों मेरे ख़िलाफ़भोर ! मुझे लगा मिट जाऊँगा मैं इस घोर अन्धियारे मेंऔर कभी भी नहीं देख पाऊँगा तुम्हें ओ भोर ! तुम आए अन्ततः, जैसे आया हो पक्षी ऋतुराज काजैसे ही तुम आए घर नहा गया उजाले सेऔर खिड़की पर लहक उठी फलों से लदी शाखलौट आया मैं अपने आप में, वर्तमान में तुम आए, भोर ! मानो आया हो फिर से बचपनाकन्धों पर उग से आए सुनहरे पँखतुमने लौटा दिया मुझे खोया अस्तित्त्वलौटाई ख़ुशी, मृदुता, लौटाया सँकल्प, लौटाई शक्ति कितना लुभावना है तुम्हारा मुखड़ा, चहुँओर हर्षचहचहाती हैं चिड़ियाँ तुम्हारे नैसर्गिक गीतफिर से आसमान आसमान-सा, धरती
'''अँग्रेज़ी से अनुवाद : [[सुधीर सक्सेना]]'''
</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
53,345
edits