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<poem>आज की रात<br>हर दिशा में अभिसार के संकेत क्यों हैं?<br><br>
हवा के हर झोंके का स्पर्श<br>सारे तन को झनझना क्यों जाता है?<br><br>
और यह क्यों लगता है<br>कि यदि और कोई नहीं तो<br>यह दिगन्त-व्यापी अँधेरा ही<br>मेरे शिथिल अधखुले गुलाब-तन को<br>पी जाने के लिए तत्पर है<br><br>
और ऐसा क्यों भान होने लगा है<br>कि मेरे ये पाँव, माथा, पलकें, होंठ<br>मेरे अंग-अंग - जैसे मेरे नहीं हैं-<br>मेरे वश में नहीं हैं-बेबस<br>एक-एक घूँट की तरह<br>अँधियारे में उतरते जा रहे हैं<br>खोते जा रहे हैं<br>मिटते जा रहे हैं<br><br>
और भय,<br>आदिम भय, तर्कहीन, कारणहीन भय जो<br>मुझे तुमसे दूर ले गया था, बहुत दूर-<br>क्या इसी लिए कि मुझे<br>दुगुने आवेग से तुम्हारे पास लौटा लावे<br>और क्या यह भय की ही काँपती उँगलियाँ हैं<br>जो मेरे एक-एक बन्धन को शिथिल<br>करती जा रही हैं<br>और मैं कुछ कह नहीं पाती!<br><br>
मेरे अधखुले होठ काँपने लगे हैं<br>और कण्ठ सूख रहा है<br>और पलकें आधी मुँद गयी हैं<br>और सारे जिस्म में जैसे प्राण नहीं हैं<br><br>
मैंने कस कर तुम्हें जकड़ लिया है<br>और जकड़ती जा रही हूँ<br>और निकट, और निकट<br>कि तुम्हारी साँसें मुझमें प्रविष्ट हो जायें<br>तुम्हारे प्राण मुझमें प्रतिष्ठित हो जायें<br>तुम्हारा रक्त मेरी मृतपाय शिराओं में प्रवाहित होकर<br>फिर से जीवन संचरित कर सके-<br><br>
और यह मेरा कसाव निर्मम है<br>और अन्धा, और उन्माद भरा; और मेरी बाँहें<br>नागवधू की गुंजलक की भाँति<br>कसती जा रही हैं<br>और तुम्हारे कन्धों पर, बाँहों पर, होठों पर<br>नागवधू की शुभ्र दन्त-पंक्तियों के नीले-नीले चिह्न<br>उभर आये हैं<br>और तुम व्याकुल हो उठे हो<br>धूप में कसे<br>अथाह समुद्र की उत्ताल, विक्षुब्ध<br>हहराती लहरों के निर्मम थपेड़ों से-<br>छोटे-से प्रवाल-द्वीप की तरह<br>बेचैन-<br><br>
……………………………………….<br>………………………………….<br>……………………………<br>…………………….<br><br>–<br>
उठो मेरे प्राण<br>और काँपते हाथों से यह वातायन बंद कर दो<br><br>
यह बाहर फैला-फैला समुद्र मेरा है<br>पर आज मैं उधर नहीं देखना चाहती<br>यह प्रगाढ़ अँधेरे के कण्ठ में झूमती<br>ग्रहों-उपग्रहों और नक्षत्रों की<br>ज्योतिर्माला मैं ही हूँ<br>और अंख्य ब्रह्माण्डों का<br>दिशाओं का, समय का<br>अनन्त प्रवाह मैं ही हूँ<br>पर आज मैं अपने को भूल जाना चाहती हूँ<br>उठो और वातायन बन्द कर दो<br>कि आज अँधेरे में भी दृष्टियाँ जाग उठी हैं<br>और हवा का आघात भी मांसल हो उठा है<br>और मैं अपने से ही भयभीत हूँ<br><br>
<br>………………………………….………………………………………लो मेरे असमंजस!अब मैं उन्मुक्त हूँऔर मेरे नयन अब नयन नहीं हैंप्रतीक्षा के क्षण हैंऔर मेरी बाँहें, बाँहें नहीं हैंपगडण्डियाँ हैंऔर मेरा यह साराहलका गुलाबी, गोरा, रुपहलीधूप-छाँव वाला सीपी जैसा जिस्मअब जिस्म नहीं-सिर्फ एक पुकार है
………………………………….<br>उठो मेरे उत्तर!………………………………………<br>और पट बन्द कर दोऔर कह दो इस समुद्र सेकि इसकी उत्ताल लहरें द्वार से टकरा कर लौट जाएँऔर कह दो दिशाओं सेकि वे हमारे कसाव में आजघुल जाएँ
लो मेरे असमंजस!<br>और कह दो समय के अचूक धनुर्धर सेअब मैं उन्मुक्त हूँ<br>कि अपने शायक उतार करतरकस में रख लेऔर मेरे नयन अब नयन नहीं हैं<br>तोड़ दे अपना धनुषऔर अपने पंख समेट कर द्वार पर चुपचापप्रतीक्षा के क्षण हैं<br>करे-और मेरी बाँहें, बाँहें नहीं हैं<br>जब तक मैंपगडण्डियाँ हैं<br>अपनी प्रगाढ़ केलिकथा का अस्थायी विराम चिह्नऔर मेरा यह सारा<br>अपने अधरों सेहलका गुलाबीतुम्हारे वक्ष पर लिख कर, गोरा, रुपहली<br>थक करधूप-छाँव वाला सीपी जैसा जिस्म<br>अब जिस्म नहीं-<br>शैथिल्य की बाँहों मेंसिर्फ एक पुकार है<br><br>डूब न जाऊँ…..
उठो आओ मेरे उत्तरअधैर्य!<br>और पट बन्द कर दो<br>दिशाएँ घुल गयी हैंऔर कह दो इस समुद्र से<br>जगत् लीन हो चुका हैकि इसकी उत्ताल लहरें द्वार से टकरा कर लौट जाएँ<br>समय मेरे अलक-पाश में बँध चुका है।और कह दो दिशाओं से<br>इस निखिल सृष्टि केकि वे हमारे कसाव अपार विस्तार में आज <br>घुल जाएँ<br><br>तुम्हारे साथ मैं हूँ - केवल मैं-
और कह दो समय के अचूक धनुर्धर से<br>कि अपने शायक उतार कर<br>तरकस में रख ले<br>और तोड़ दे अपना धनुष<br>और अपने पंख समेट कर द्वार पर चुपचाप<br>प्रतीक्षा करे-<br>जब तक मैं<br>अपनी प्रगाढ़ केलिकथा का अस्थायी विराम चिह्न<br>अपने अधरों से<br>तुम्हारे वक्ष पर लिख कर, थक कर<br>शैथिल्य की बाँहों में<br>डूब न जाऊँ…..<br><br> आओ मेरे अधैर्य!<br>दिशाएँ घुल गयी हैं<br>जगत् लीन हो चुका है<br>समय मेरे अलक-पाश में बँध चुका है।<br>और इस निखिल सृष्टि के<br>अपार विस्तार में<br>तुम्हारे साथ मैं हूँ - केवल मैं-<br><br> तुम्हारी अंतरंग केलिसखी!</poem>
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