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कबीर ने यहाँ पर माया का मानवीकरण करते हुए उसे स्त्रीलिंग के रूप में प्रस्तुत किया है, यही माया हमें संसार के भोग- विलास में ले जाती है तथा हमारे जीवन का जो वास्तविक अर्थ होता है उससे हमें दूर कर देती है।
'''विशेष''' - कई विद्वानों ने माया को स्त्री माना है है। उनके विचारानुसार स्त्री ही मनुष्य को भटकाती है लेकिन इसका खंड़न करते हुए, मैं यह मानती हूँ कि कबीर स्त्री विरोधी नहीं थे। यहाँ आत्मा की बात की जा रही है जो समस्त स्त्री व पुरुष में होती है और उसे ही स्त्रीलिंग के रूप में देख रहे हैं जिसका कई वर्षों से गलत प्रयोग किया जा रहा है।
|चित्र=Usha-dashora-kavitakosh-200px.png
|लेखक=उषा दशोरा
|योग्यता=सहायक शिक्षिका (हिंदी)
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