भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 1

13 bytes removed, 16:15, 30 अगस्त 2020
|सारणी=रश्मिरथी / रामधारी सिंह "दिनकर"
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
हो गया पूर्ण अज्ञात वास,
:पाडंव लौटे वन से सहास, 
पावक में कनक-सदृश तप कर,
:वीरत्व लिए कुछ और प्रखर, 
नस-नस में तेज-प्रवाह लिये,
कुछ और नया उत्साह लिये।
सच है, विपत्ति जब आती है,
कायर को ही दहलाती है,
शूरमा नहीं विचलित होते,
सच है, विपत्ति जब आती है,  :कायर को ही दहलाती है, शूरमा नहीं विचलित होते,  :क्षण एक नहीं धीरज खोते, 
विघ्नों को गले लगाते हैं,
काँटों में राह बनाते हैं।
मुख से न कभी उफ कहते हैं,
संकट का चरण न गहते हैं,
जो आ पड़ता सब सहते हैं,
मुख से न कभी उफ कहते हैं,  :संकट का चरण न गहते हैं, जो आ पड़ता सब सहते हैं,  :उद्योग-निरत नित रहते हैं, 
शूलों का मूल नसाने को,
बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को।
है कौन विघ्न ऐसा जग में,
टिक सके वीर नर के मग में
खम ठोंक ठेलता है जब नर,
है कौन विघ्न ऐसा जग में,  :टिक सके वीर नर के मग में खम ठोंक ठेलता है जब नर,  :पर्वत के जाते पाँव उखड़। 
मानव जब जोर लगाता है,
पत्थर पानी बन जाता है।
गुण बड़े एक से एक प्रखर,
हैं छिपे मानवों के भीतर,
मेंहदी में जैसे लाली हो,
गुण बड़े एक से एक प्रखर,  :हैं छिपे मानवों के भीतर, मेंहदी में जैसे लाली हो,  :वर्तिका-बीच उजियाली हो। 
बत्ती जो नहीं जलाता है
रोशनी नहीं वह पाता है।
पीसा जाता जब इक्षु-दण्ड,
झरती रस की धारा अखण्ड,
मेंहदी जब सहती है प्रहार,
पीसा जाता जब इक्षु-दण्ड,  :झरती रस की धारा अखण्ड, मेंहदी जब सहती है प्रहार,  :बनती ललनाओं का सिंगार। 
जब फूल पिरोये जाते हैं,
हम उनको गले लगाते हैं।
</poem>
Delete, Mover, Reupload, Uploader
16,172
edits