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{{KKRachna
|रचनाकार=फ़िराक़ गोरखपुरी
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|संग्रह=
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[[Category:ग़ज़ल]]{{KKCatGhazal}}<poem>
शाम-ए-ग़म कुछ उस निगाह-ए-नाज़ की बातें करो
 
बेख़ुदी बढ़ती चली है राज़ की बातें करो
 
ये सुकूत-ए-नाज़, ये दिल की रगों का टूटना
 
ख़ामुशी में कुछ शिकस्त-ए-साज़ की बातें करो
 
निकहत-ए-ज़ुल्फ़-ए-परीशां, दास्तान-ए-शाम-ए-ग़म
 
सुबह होने तक इसी अंदाज़ की बातें करो
 
कूछ क़फ़स की तीलियों से छन रहा है नूर सा
 
कुछ फ़िज़ा, कुछ हसरत-ए-परवाज़ की बातें करो
 
जिसकी फ़ुरक़त ने पलट दी इश्क़ की काया फ़िराक़
 
आज उसी ईसा नफ़स दमसाज़ की बातें करो
</poem>
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