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किं कारणं ब्रह्म कुतः स्म जाता जीवाम केन क्व च संप्रतिष्ठा।<br>
अधिष्ठिताः केन सुखेतरेषु वर्तामहे ब्रह्मविदो व्यवस्थाम् ॥१॥व्यवस्थाम्॥१॥<br>
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::कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्या।<br>
::संयोग एषां न त्वात्मभावा-दात्माप्यनीशः सुखदुःखहेतोः ॥२॥सुखदुःखहेतोः॥२॥<br>
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ते ध्यानयोगानुगता अपश्यन् देवात्मशक्तिं स्वगुणैर्निगूढाम् ।स्वगुणैर्निगूढाम्।<br>यः कारणानि निखिलानि तानि कालात्मयुक्तान्यधितिष्ठत्येकः ॥३॥कालात्मयुक्तान्यधितिष्ठत्येकः॥३॥<br>
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::तमेकनेमिं त्रिवृतं षोडशान्तं शतार्धारं विंशतिप्रत्यराभिः।<br>
::अष्टकैः षड्भिर्विश्वरूपैकपाशं त्रिमार्गभेदं द्विनिमित्तैकमोहम् ॥४॥द्विनिमित्तैकमोहम्॥४॥<br>
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पञ्चस्रोतोम्बुं पञ्चयोन्युग्रवक्रां पञ्चप्राणोर्मिं पञ्चबुद्ध्यादिमूलाम् ।पञ्चबुद्ध्यादिमूलाम्।<br>पञ्चावर्तां पञ्चदुःखौघवेगां पञ्चाशद्भेदां पञ्चपर्वामधीमः ॥५॥पञ्चपर्वामधीमः॥५॥<br>
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यदि विश्व रूप नदी का है, तो स्रोत पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ ,<br>
दुर्गम गति व् प्रवाह अथ, पुनि जन्म मृत्यु की उर्मियाँ। <br>
ज़रा, जन्म, मृत्यु, गर्भ, रोग, के दुःख जीवन विकट है,<br>
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::सर्वाजीवे सर्वसंस्थे बृहन्ते अस्मिन् हंसो भ्राम्यते ब्रह्मचक्रे ।ब्रह्मचक्रे।<br>::पृथगात्मानं प्रेरितारं च मत्वा जुष्टस्ततस्तेनामृतत्वमेति॥६॥<br></span>
<span class="mantra_translation"> ::पृथगात्मानं प्रेरितारं च मत्वा जुष्टस्ततस्तेनामृतत्वमेति ॥६॥है जीविका आश्रय जगत, परब्रह्म प्रभु परमात्मा,<br>::स्व कर्मों के अनुरूप घूमे, चक्र में जीवात्मा।<br>::वह ब्रह्म में यदि लीन हो तो, जन्म मृत्यु से मुक्त हो,<br>::होकर अमियमय शुद्ध, शाश्वत ब्रह्म से संयुक्त हो। [६]<br><br>
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उद्गीतमेतत्परमं तु ब्रह्म तस्मिंस्त्रयं सुप्रतिष्ठाऽक्षरं च ।
<span class="upnishad_mantra">उद्गीतमेतत्परमं तु ब्रह्म तस्मिंस्त्रयं सुप्रतिष्ठाऽक्षरं च।<br>अत्रान्तरं ब्रह्मविदो विदित्वा लीना ब्रह्मणि तत्परा योनिमुक्ताः ॥७॥योनिमुक्ताः॥७॥<br>
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<span class="upnishad_mantramantra_translation"> ::संयुक्तमेतत् क्षरमक्षरं च व्यक्ताव्यक्तं भरते विश्वमीशः ।परब्रह्म जो वेदों में वर्णित, सर्व श्रेष्ठ है अमर है,<br>उसमें ही तीनों लोक स्थित, वही मुक्ति की डगर है।<br>उस हृदय स्थित ब्रह्म को, वेदज्ञ समुचित जानते,<br>उसके परायण लीन हो अथ मुक्ति पथ पहचानते। [७] <br><br></span>
::अनीशश्चात्मा बध्यते भोक्तृ-भावाज् ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः ॥८॥
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ज्ञाज्ञौ द्वावजावीशनीशावजा ह्येका भोक्तृभोग्यार्थयुक्ता ।::संयुक्तमेतत् क्षरमक्षरं च व्यक्ताव्यक्तं भरते विश्वमीशः।<br>::अनीशश्चात्मा बध्यते भोक्तृ-भावाज् ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः॥८॥<br></span>
अनन्तश्चात्मा विश्वरूपो ह्यकर्ता त्रयं यदा विन्दते ब्रह्ममेतत् ॥९॥ <span class="upnishad_mantramantra_translation"> ::क्षरं प्रधानममृताक्षरं हरः क्षरात्मानावीशते देव एकः ।चेतन व जड़ संयोग से, अव्यक्त -व्यक्त जो जग यहाँ,<br>::धारक व पोषक ब्रह्म तो, जीवात्मा भोक्ता यहाँ।<br>::विषयों के भोगों से, प्रकृति आधीन बंधता जीव है,<br>::हो प्रभु अहैतु की कृपा, तो मुक्त होता जीव है। [८] <br><br></span>
::तस्याभिध्यानाद्योजनात्तत्त्व भावात् भूयश्चान्ते विश्वमायानिवृत्तिः ॥१०॥
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ज्ञात्वा देवं सर्वपाशापहानिः क्षीणैः वलेशेर्जन्ममृत्युप्रहाणिः ।ज्ञाज्ञौ द्वावजावीशनीशावजा ह्येका भोक्तृभोग्यार्थयुक्ता।<br>अनन्तश्चात्मा विश्वरूपो ह्यकर्ता त्रयं यदा विन्दते ब्रह्ममेतत्॥९॥ <br></span>
तस्याभिध्यानात्तृतीयं देहभेदे विश्वैश्वर्यं केवल आप्तकामः ॥११॥<span class="mantra_translation"> परब्रह्म जीव व् प्रकृति में, परमात्मा का तत्व है,<br>तीनों अनादि अजन्मा पर, परब्रह्म अद्भुत सत्व है।<br>यह विश्व रूप विराट का, निष्काम ब्रह्म की वृति है,<br>मानव जो जाने मर्म प्रवृति, जन्म मृत्यु से निवृति है। [९] <br><br></span> <span class="upnishad_mantra">::क्षरं प्रधानममृताक्षरं हरः क्षरात्मानावीशते देव एकः।<br>::तस्याभिध्यानाद्योजनात्तत्त्व भावात् भूयश्चान्ते विश्वमायानिवृत्तिः॥१०॥<br>
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<span class="mantra_translation">
::जीवात्मा अक्षय, अमर, क्षयशील प्रकृति की वृति है,<br>
::जड़ तत्व चेतन आत्मा में, प्रभुत्व प्रभु की शक्ति है।<br>
::उसका सतत जो स्मरण, और ध्यान में तन्मय रहे,<br>
::तो अंत में माया निवृति और चित्त में चिन्मय रहे। [१०] <br><br>
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::एतज्ज्ञेयं नित्यमेवात्मसंस्थं नातः परं वेदितव्यं हि किञ्चित् ।ज्ञात्वा देवं सर्वपाशापहानिः क्षीणैः वलेशेर्जन्ममृत्युप्रहाणिः।<br>तस्याभिध्यानात्तृतीयं देहभेदे विश्वैश्वर्यं केवल आप्तकामः॥११॥<br></span>
<span class="mantra_translation"> परब्रह्म प्रभु के सतत चिंतन से ही पाप का नाश हो,<br>हो जन्म मृत्यु का सर्वथा ही अभाव मन में प्रकाश हो।<br>वही मुक्तकाम हो, जीव वृतियां सात्विक सम्पूर्ण हो,<br>वही आप्तकाम विशुद्ध, अतिशय निर्विकल्प हो पूर्ण हो। [११] <br><br></span> <span class="upnishad_mantra">::एतज्ज्ञेयं नित्यमेवात्मसंस्थं नातः परं वेदितव्यं हि किञ्चित्।<br>::भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा सर्वं प्रोक्तं त्रिविधं ब्रह्ममेतत् ॥१२॥ब्रह्ममेतत्॥१२॥ <br>
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::परब्रह्म अपने हृदय स्थित, एक मात्र ही ज्ञेय है,<br>
::इससे परम और चरम, कोई भी नहीं, न श्रेय है।<br>
::जीवात्मा जड़ वर्ग के, प्रेरक परम प्रभु ब्रह्म हैं,<br>
::वह ही नियामक ज्ञात हो तो, कहाँ कुछ भी अगम्य है। [१२] <br><br>
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वह्नेर्यथा योनिगतस्य मूर्तिनर् दृश्यते नैव च लिङ्गनाशः ।लिङ्गनाशः।<br>स भूय एवेन्धनयोनिगृह्य स्तद्वोभयं वै प्रणवेन देहे॥१३॥ <br><br></span>
स भूय एवेन्धनयोनिगृह्य स्तद्वोभयं वै प्रणवेन देहे ॥१३॥<span class="mantra_translation"> ज्यों अरणियों में अग्नि, पर किंचित नहीं दृष्टव्य है,<br>त्यों ब्रह्म में जीवात्मा होती नहीं ज्ञातव्य है।<br>पर ॐ जप निश्चय करे, साक्षात उस परमेश को,<br>अदृश्य पर अणु- कण बसे, अद्भुत अगम्य विशेष को। [१३] <br><br></span>
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::स्वदेहमरणिं कृत्वा प्रणवं चोत्तरारणिम् ।चोत्तरारणिम्।<br>::ध्याननिर्मथनाभ्यासादेवं पश्यन्निगूढवत् ॥१४॥पश्यन्निगूढवत्॥१४॥<br>
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तिलेषु तैलं दधिनीव सर्पि रापः स्रोतःस्वरणीषु चाग्निः ।
<span class="mantra_translation"> ::जब दो अरणियों का हो मंथन, अग्नि तब ही प्रगट हो,<br>::स्व देह अर्णिम, प्रणव अर्णिम, से ही परब्रह्म निकट हों। <br>::ओमकार का जप, ध्यान द्वारा, यदि निरंतर जाप हो,<br>::तब काष्ठ निहित अग्नि सम ही, प्रगट प्रभुवर आप हों। [१४] <br><br> </span> <span class="upnishad_mantra">तिलेषु तैलं दधिनीव सर्पि रापः स्रोतःस्वरणीषु चाग्निः।<br>एवमात्माऽत्मनि गृह्यतेऽसौ सत्येनैनं तपसायोऽनुपश्यति ॥१५॥तपसायोऽनुपश्यति॥१५॥<br><br>
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<span class="mantra_translation">
जैसे दही में घी, तिलों में तेल, जल श्रोतों में है,<br>
अग्नि अरणियों में यथा,परमात्मा हृदयों में है।<br>
यदि सत्य संयम रूप तप निष्काम वृति साधक में हो,<br>
मिले निश्चय ही परमात्मा, किंचित कोई बाधक न हो। [१५] <br><br>
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::सर्वव्यापिनमात्मानं क्षीरे सर्पिरिवार्पितम् ।सर्पिरिवार्पितम्।<br>::आत्मविद्यातपोमूलं तद्ब्रह्मोपनिषत् परम्॥१६॥<br><br></span>
<span class="mantra_translation"> ::आत्मविद्यातपोमूलं तद्ब्रह्मोपनिषत् परम् ॥१६॥ज्यों दूध में स्थित है घी, सर्वत्र है परिपूर्ण है,<br>::त्यों पूर्ण प्रभु परमेश जग में व्याप्त है सम्पूर्ण है।<br>::वह आत्म विद्या और तप, साधन से ही प्राप्तव्य है,<br>::परब्रह्म तत्व परम प्रभो, उपनिषदों से ज्ञातव्य है। [१६] <br><br>
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