भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
प्यासी हवा हाँफती
फिर-फिर पानी खोज रही
सूखे कण्ठ-कोकिला, मीठी<br />बानी खोज रही<br />नीम द्वार का, छाया खोजे<br />पीपल गाछ तलाशे<br />नदी खोजती धार<br />कूल कब से बैठे हैं प्यासे<br />पानी-पानी रटे<br />रात-दिन, ऐसा ताल हुआ।<br />हुआजाने क्या हो गया, कि<br />सूरज इतना लाल हुआ।।<br />हुआ। सूने-सूने राह, हाट, वन<br />सब कुछ सूना-सूना<br />बढ़ता जाता और दिनो-दिन<br />तेज धूप का दूना<br />धरती व्याकुल, अम्बर व्याकुल<br />व्याकुल ताल-तलैया<br />पनघट, कुँआ, बावड़ी व्याकुल<br />व्याकुल बछड़ा -गैया<br />अब तो आस तुझी से बादल<br />क्यों कंगाल हुआ।<br />हुआजाने क्या हो गया, कि<br />सूरज इतना लाल हुआ।।<br />हुआ। -डॅा. जगदीश व्योम
</poem>