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(लाभांश)
मनुष्य के लिए प्रति गहरी आत्मीयता के कारण ही कवि ने यन्त्रणा, आतंक और दुःख दुख की अग्नि-परीक्षा के बीच भी भारतीय समाज की चेतना को उज्जवल रूप में पकड़ रखा है। है । इसीलिए कमलेश की कविताओं में सन्देह और संशय है , लेकिन विच्छिन्नता नहीं है, विभ्रान्ति और दिशाभ्रम की परिस्थितियों के बावजूद उनकी कविताएँ हमें विश्वास दिलाती है। हैं । मनुष्य और संसार के प्रति एक जि़म्मेदारी का भाव महसूस होने के कारण ही उनकी कविताओं में करुणा और विषाद हृदय को भेदने की शक्ति बनी हुई है। दुःख है । दुख उनकी कविता का एक मुख्य विषय हैःहै : दुःख दुख यह अपना ही यदि होताइन्द्रिय तन्त्र सहन कर लेता।लेता ।गढ़कर किस्से क़िस्से नगर-नगर मेंभीख माँग झोली भर लेता।लेता ।दुःख दुख ही जब दो का हो जाएदोनों होवे हों जब पास-पड़ोसी....
बस जाएँ फिर उसी नगर में
जहाँ भीख से भर दे झोली।झोली ।किस्से क़िस्से उसी लोक के गाकरराह काट लें दो हमजोली।हमजोली । (दुःख दुख यह) बहुत-सी कविताओं में कवि कमलेश ने चित्रधर्मी आंगिक की सीमाबध्दता को अतिक्रम सीमाबद्धता का अतिक्रमण कर गतिमान जगत के चरित्र को रूपायित किया है। ऐसी कुशलता उनकी कई कविताओं में विद्यमान है उनमें से एक है, ‘यह मेरा भाई था’-: मैं बड़ा हो रहा था।था ।पाठशाला जाने लगा था।था । मैं सौरी की और ओर देखता था बार-बार,
माँ कई दिनों से वहीं थी,
खाट पर लेटी।लेटी ।पैंताने खड़ी थी नायन।नायन । 
मैं उस कोठरी की ओर
देखता था बार-बार
मालूम था मुझे
एक भाई या बहिन....
 
(यह मेरा भाई था)
  ‘बेटी’ नामक अन्य एक कविता में ‘बेटी’: बेटी, गुडि़या गुड़िया सजाओ
चन्दा को बुलाओ
झूले में झुलाओ...
 माँ से सीखो कताई, कढ़ाई
सखी-सहेली से गीतों के बोल...
 
(बेटी)
 सचेत पाठक अगर ग़ौर करे , तो पता चलेगा कि कविता को एक निर्दिष्ट गठन से हटाने के लिए आख्यान का उपयोग किया गया है। प्रचलित रीति को हटाकर द्वन्द्वात्मक और ऐतिहासिक विषयों का उद्घाटन किया गया है। इस संधि-क्षण में पाठक को कवि की दक्षता और मौलिकता का पता चलेगा। चलेगा । कवि ने लिखी हुई लिखित भाषा और संयोग से निकलकर नेरेटिव गठन के बीच में निजस्व स्वतन्त्रता की घोषणा की है।है । वे जब कविता को ऊँचाई तक ले जाना चाहते हैं, स्वतःस्फूर्त रूप से उनकी भाषा में प्रकट होती है, ज्ञान की वस्तुगत उपलब्धि, जिसमें विश्व ब्रह्माण्ड को जगाने की आकांक्षा पैदा होती है। इसीलिए वे लिखते हैं : हृदय का अपरिमित विस्तार करती करुणा
सत्य का सामीप्य पाकर
एक टुकड़ा बन जाती है बादल का।का । 
यह बादल
बरसने लगता धरती पर
शान्ति बनकर
झर-झर...
 
(इस आकाश में)
 ‘साक्षात्कार’ कविता मेंःमें देखें :
सम्भव कैसे हो
स्वयं से साक्षात
अन्तर्मुख होते ही
समर का सूत्रपात।...
 ‘खुले में आवास’ संकलन में इसी एक नाम की एक कविता में जब वे कहते हैं : वहाँ, उस खुले में ही तुम्हारा घर है
खुला अभी बचा है वन के फैलाव से
 
धरती पर कच्छप पीठ सा उठा हुआ
अजानी, अदेखी, संकरी पगडण्डी है
पैतृक आवाज़े वहाँ ले जाती है....
 वहाँ, उस खुले में ही तुम्हारा घर है। ऐसे समय में हम देखते हैं कि उनका आकाश या मुक्ति का प्रतीक उपलब्धि के बीच से कल्प-कथा का रूप ले रही है रहा है। जो उनके लिए एक ऐसा वास्तव यथार्थ है , जिससे मुँह नही मोड़ सकते। मोड़ा जा सकता। उनके लिए यह काल निरपेक्ष तात्विक उपलब्धि है। कमलेश की यह खोज कोई विमूर्त कवायद नहीं है ,बल्कि मानव सभ्यता की भयावह गति-गोत्र और ट्रेजिक परिणति तथा मूल्यबोध के अन्तःसार शून्य के बीच गढ़ी गयी कविता का नेरेटिव है। 
‘खुले में आवास’ और ‘बसाव’ इन दोनो काव्य संकलनों में कमलेश की कविताओं पर अगर गहरायी से ग़ौर किया जाये तो एक खास विषय की उपलब्धि होगी, वह हैः आकाश उनके लिए एक दार्शनिक उपलब्धि है। आकाश उनके लिए सनातन उपलब्धि है जिसके नीचे खड़े होकर स्थान और समय द्वारा निर्धारित सारी सीमाबद्धताएँ उन्हें अतिक्रमित करना चाहती हैं। उनकी आत्मा निरन्तर गुनगुनाती है, इस काल निरपेक्ष आकाश या मुक्ति या शून्यता की संस्कृति को-
बसाव हर कहीं है।
 
बसाव ही बसाव है-
पृथिवी पर, देवलोक में
बसाव है देवताओं का
देवता ही देवता है...
 
(बसाव)
 
‘बसाव’ संकलन की कविताओं में देखा जा सकता है कि कमलेश ने कविता के गौरव को सजीव और सक्रिय कर दिया है और युग सन्धि के आलोड़न को नये खून से उज्जीवित कर दिया है। ऐसी कविताओं में उनका युग्मविरोध स्पष्ट हो जाता है। उनके इस युग्मविरोध की पृष्ठभूमि का विचार करना एक जटिल काम है। एक कवि सामाजिक भावावेग को किस तरह ग्रहण करता है और प्रतिष्ठित मूल्यबोध के साथ उसके विरोध का रूप कैसा है, उसके ऊपर ही निर्भर करता है, उसके बौध्दिक गठन के ऊपर।
 
जीवन की अपूर्णता, हताशा को काव्योपलब्धि से शिल्प का रूपायन कर हमारे चिन्ता-श्रोत को तरंगायित करने में कमलेश सिद्धहस्त थे। उनकी कविताओं में पाठक को किसी निर्धारित भावना, शब्द-चयन और गठन का पूर्वाभास नहीं मिलता है। कविताएँ इस तरह स्तरीभूत हो रखी हैं कि कवि की तरह पाठक भी अनजान हैं कि वाक्यों की शुरुआत कहाँ से होती है और खत्म कहाँ पर। यही है कविता की आत्मविवृति और आत्मनिर्धारण की कुशलता। इसी काव्य कुशलता ने ही कमलेश की कविताओं के तात्पर्यपूर्ण लक्षण का विमोचन किया है। कमलेश विप्लवी नहीं थे। लेकिन जीवन और जि़न्दा रहने के सारे कारणों के सपक्ष में उन्होंने मध्यवर्गीय चतुरायी को झकझोर दिया है। कामू ने घोषणा की थी- मैं इसलिए विप्लव का विरोध करता हूँ कि अन्त में वह विप्लव का विरोधी हो जाता है। उस मतलब से कमलेश को विप्लवी न कहकर ऐसा एक सृजनशील व्यक्ति कहना होगा जो जीवन की विशाल सम्भावना को सजीव करने में सृजनशील वातावरण की आराधना करता हो जिसके बीच से वे एक उन्नत संस्कृति का प्रतिनिधित्व करे, ऐसी एक संस्कृति जहाँ सभ्यता का यथार्थ और गणतान्त्रिक रूप हम आविष्कृत कर सकेंगे।
कमलेश्वर की कविता से रूबरु होने के बाद मैं बार-बार एक ऐसे अदृश्य जगत में प्रवेश कर जाता हूँ जहाँ केवल सवाल होते हैं और उन सवालों में ही उनके जवाब होते हैं। उन सवालों में हम मानसिक बैचेनी से सहमत हुए बिना नहीं रह सकते। ऐसा लगता है जैसे जवाब हैं इसीलिए सवालों का जन्म हुआ है। जवाब होते हैं अविचलित।
 
‘खुले में आवास’ की इस कविता पर गौर करें जिसका शीर्षक है- ‘बेकार चीजें़ः’
 
घोंघे, कंकड़, कागज़
घिसे पत्थर, केंकड़े
बेकार सी स्मृतियाँ
मरी पड़ी मछलियाँ।
 
जिन्हें हम बेकार समझते है उन वस्तुओं के अस्तित्व की घोषणा करते हुए कवि कहता है कि वे आदमी के साथ किसी न किसी तरह न सिर्फ़ जुड़ी हुई होती है बल्कि वे बोध के जगत में भी अपने आपको प्रमाणित करते हैं। ये बेकार चीज़ें रास्ते-घाट में पड़ी हुई बेकार चीज़ें ही नहीं है, हमारे दिमाग में भी जो चमकते खबर के टुकड़े की तरह कितनी बेकार चीज़ें हैं वे भी यहाँ प्रतिबिम्बित हो जाती है।
 
प्रज्ञा का अनुरणन जिस तरह भावना प्रधान मन में प्रकट नहीं होता है, उसी तरह यथार्थ रूप में निर्माण करना चाह रहे जीवन का प्रतिबिम्ब भी नहीं होता। ये दो परम्पराओं के जुड़ने से निर्णीत हुई एक विशेष उपलब्धि है। और ऐसा करने के कारण कमलेश की कविताएँ दार्शनिक चेतना का आयतन प्राप्त करती है। इसी दार्शनिक-चेतना-बोध ने उनकी अपार कल्पना शक्ति और जागतिक चिन्ता चर्चा को रूप दिया है जिनके आधार पर गढ़ी गयी उनकी कविताओं का महाकाव्यात्मक आयतन समृध्द हो उठा है।
 
टी.एस. एलियट ने कवि के कौशल को प्रमाण करने के लिए जन प्रचलित शब्दों के व्यवहार की बातें कही थी। कमलेश की अनेकों कविताओं में देखा जा सकता है कि प्रचलित साधारण शब्दों का व्यवहार कर उन्होंने भावों के विन्यास को विचित्रता प्रदान की है।
 
आधुनिकता में वास्तविक सत्य की खोज ही कला होती है। असाधारण मनस्तात्विक परिचय से परस्पर विपरीतमुखी भावों का उन्मेष और जटिल चित्र के समन्वय स्थापन ने कमलेश की कविताओं को आकर्षक बना दिया है। उनकी कविताओं में नैतिकता की दार्शनिक बुनियाद भी स्पष्ट हो जाती है। परम्परागत गौरव के पुनर्जीवन की प्रक्रिया और रचनाशीलता ने कला के माध्यम से कमलेश ने रची हुई व्यापक सम्भावनाओं को काव्यपाठ में नये माध्यम से प्रकट किया है। उनकी कविताओं में अर्थबोध और रसबोध के समाहार ने एक जीवन भाष्य की मर्यादा को लाभान्वित किया है। इसीलिए कवि के अनजाने ही उनके भीतर छिपी हुई सामूहिक उपलब्धि के सहारे उन्होंने खोज की है कि केवल मनुष्य ही नहीं प्राकृतिक जगत में भी ऐसी कुछ सच्चाई है जो कमलेश की कविता के न होने से कभी भी उच्चारित नहीं हो पाती।
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