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भारतेंदु हरिश्चंद्र

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== भारतेंदु हरिश्चंद्र की रचनाएँ==
[[Category:भारतेंदु हरिश्चंद्र]]
==जीवन परिचय==
भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म 1850 में काशी के एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में हुआ। उनके पिता गोपाल चंद्र एक अच्छे कवि थे और गिरधर दास उपनाम से कविता लिखा करते थे।{{KKParichay|चित्र=Bhartendu.jpg|नाम====शिक्षा====भारतेंदु जी की अल्पावस्था में ही उनके माता-पिता का देहांत हो गया था अतः स्कूली शिक्षा प्राप्त करने में भारतेंदु जी असमर्थ रहे। घर पर रह कर हिंदी, मराठी, बंगला, उर्दू तथा अंग्रेज़ी का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया। भारतेंदु जी को काव्य-प्रतिभा अपने पिता से विरासत के रूप में मिली थी। उन्होंने पांच वर्ष की अवस्था में ही निम्नलिखित दोहा बनाकर अपने पिता को सुनाया और सुकवि होने का आशीर्वाद प्राप्त किया- लै ब्योढ़ा ठाढ़े भए श्री अनिरुध्द सुजान। वाणा सुर की सेन को हनन लगे भगवान।।हरिश्चंद्र|उपनाम====साहित्य सेवा==== पंद्रह वर्ष की अवस्था से ही भारतेंदु ने साहित्य सेवा प्रारंभ कर दी थी, अठारह वर्ष की अवस्था में उन्होंने कवि वचन-सुधा नामक पत्र निकाला जिसमें उस समय के बड़े-बड़े विद्वानों की रचनाएं छपती थीं। |जन्म====समाज सेवा==== साहित्य सेवा के साथ-साथ भारतेंदु जी की समाज सेवा भी चलती थी। उन्होंने कई समस्याओं की स्थापना में अपना योग दिया। दीन-दुखियों, साहित्यिकों तथा मित्रों की सहायता करना वे अपना कर्तव्य समझते थे।धन के अत्यधिक व्यय से भारतेंदु जी ॠणी बन गए और दुश्चिंताओं के कारण उनका शरीर शिथिल होता गया। परिणाम स्वरूप 1885 में अल्पायु में ही मृत्यु ने उन्हें ग्रस लिया।18वीं शताब्दी|जन्मस्थान==कृतियां== * भारतेंदु कृत-काव्य - ग्रंथों में दान-लीलाकाशी, प्रेम तरंगउत्तर प्रदेश, प्रेम प्रलाप, कृष्ण चरित्र आदि उनके भक्ति संबंधी काव्य हैं। * सतसई श्रृंगार, होली मधु मुकुल आदि श्रृंगार-प्रधान रचनाएं हैं। * भारत वीरत्व, विजय-बैजयंती सुमनांजलि आदि उनकी राष्ट्रीय कवियों के संग्रह हैं। * बंदर|मृत्यु=-सभा, बकरी का विलाप, अंधेर नगरी चौपट राजा हास्य-व्यंग्य प्रधान काव्य कृतियां हैं। |कृतियाँ==काव्यगत विशेषताएं== ====वर्ण्य विषय====भारतेंदु जी की यह विशेषता रही कि जहां उन्होंने ईश्वर भक्ति आदि प्राचीन विषयों पर कविता लिखी वहां उन्होंने समाज सुधारभक्तसर्वस्व (1870), प्रेममालिका(1871), राष्ट्र प्रेम आदि नवीन विषयों को भी अपनाया। अतः विषय के अनुसार उनकी कविता श्रृंगार-रस प्रधानमाधुरी(1875), भक्ति-रस प्रधान, सामाजिक समस्या प्रधान तथा राष्ट्र प्रेम प्रधान हैं। =====श्रृंगार रस प्रधान===== भारतेंदु जी ने श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों ही पक्षों का सुंदर चित्रण किया है। वियोगावस्था का एक चित्र देखिएदेख्यो एक बारहूं न नैन भरि तोहि याते जौन जौन लोक जैहें तही पछतायगी। बिना प्रान प्यारे भए दरसे तिहारे हायतरंग(1877)देखि लीजो आंखें ये खुली ही रह जायगी। =====भक्ति प्रधान===== भारतेंदु जी कृष्ण के भक्त थे और पुष्टि मार्ग के मानने वाले थे। उनको कविता में सच्ची भक्ति भावना के दर्शन होते हैं। वे कामना करते हैं उत्तरार्द्धबोल्यों करै नूपुर स्त्रीननि के निकट सदा पद तल मांहि मन मेरी बिहरयौ करै। बाज्यौ करै बंसी धुनि पूरि रोमभक्तमाल(1876-रोम77)मुख मन मुस्कानि मंद मनही हास्यौ करै। =====सामाजिक समस्या प्रधान===== भारतेंदु जी ने अपने काव्य में अनेक सामाजिक समस्याओं का चित्रण किया। उन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों पर तीखे व्यंग्य किए। महाजनों और रिश्वत लेने वालों को भी उन्होंने नहीं छोड़ाप्रेम-चूरन अमले जो सब खातेप्रलाप(1877),दूनी रिश्वत तुरत पचावें।चूरन सभी महाजन खाते,जिससे जमा हजम कर जाते। =====राष्ट्रगीत-प्रेम प्रधान===== भारतेंदु जी के काव्य में राष्ट्रगोविंदानंद(1877-प्रेम भी भावना स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। भारत के प्राचीन गौरव की झांकी वे इन शब्दों में प्रस्तुत करते हैं -भारत के भुज बल जग रच्छित78), भारत विद्या लहि जग सिच्छित।भारत तेज जगत विस्ताराहोली(1879),भारत भय कंपिथ संसारा। ==प्राकृतिक चित्रण== प्रकृति चित्रण में भारतेंदु जी को अधिक सफलता नहीं मिली, क्योंकि वे मानवमधु-प्रकृति के शिल्पी थेमुकुल(1881), बाह्य प्रकृति में उनका मर्म पूर्णरूपेण नहीं रम पाया। अतः उनके अधिकांश प्रकृति चित्रण में मानव हृदय को आकर्षित करने की शक्ति का अभाव है।चंद्रावली नाटिका के यमुनाराग-वर्णन में अवश्य सजीवता है तथा उसकी उपमाएं और उत्प्रेक्षाएं नवीनता लिए हुए हैं-कै पिय पद उपमान जान यह निज उर धारतसंग्रह(1880),कै मुख कर बहु भृंगन मिस अस्तुति उच्चारत।कै ब्रज तियगन बदन कमल की झलकत झांईं,कै ब्रज हरिपद परस हेतु कमला बहु आईं। ==भाषा==भारतेंदु जी के काव्य की भाषा प्रधानतः ब्रज भाषा है। उन्होंने ब्रज भाषा के अप्रचलित शब्दों को छोड़ कर उसके परिकृष्ट रूप को अपनाया। उनकी भाषा में जहांवर्षा-तहां उर्दू और अंग्रेज़ी के प्रचलित शब्द भी जाते हैं।भारतेंदु जी की भाषा में कहीं-कहीं व्याकरण संबंधी अशुध्दियां भी देखने को मिल जाती हैं। मुहावरों का प्रयोग कुशलतापूर्वक हुआ है। भारतेंदु जी की भाषा सरल और व्यवहारिक है। ==शैली==भारतेंदु जी के काव्य में निम्नलिखित शैलियों के दर्शन होते हैं -1. रीति कालीन रसपूर्ण अलंकार शैली - श्रृंगारिक कविताओं में।2. भावात्मक शैली - भक्ति के पदों में। 3. व्यंग्यात्मक शैली - समाज-सुधार की रचनाओं में।4. उद्बोधन शैली - देश-प्रेम की कविताओं में। ==रस==भारतेंदु जी ने लगभग सभी रसों में कविता की है। श्रृंगार और शांत की प्रधानता है। श्रृंगार के दोनों पक्षों का भारतेंदु जी ने सुंदर वर्णन किया है। उनके काव्य में हास्य रस की भी उत्कृष्ट योजना मिलती है। ==छंद==भारतेंदु जी ने अपने समय में प्रचलित प्रायः सभी छंदों को अपनाया है। उन्होंने केवल हिंदी के ही नहीं उर्दूविनोद(1880), संस्कृत, बंगला भाषा के छंदों को भी स्थान दिया है। उनके काव्य में संस्कृत के बसंत तिलका, शार्दूल, विक्रीड़ित, शालिनी आदि हिंदी के चौपाई, छप्पय, रोला, सोरठा, कुंडलियां कवित्त, सवैया घनाछरी आदि, बंगला के पयार तथा उर्दू के रेखता, ग़ज़ल छंदों फूलों का प्रयोग हुआ है। इनके अतिरिक्त भारतेंदु जी कजलीगुच्छा(1882), ठुमरीप्रेम-फुलवारी(1883), लावनी, मल्हार, चैती आदि लोक छंदों को भी व्यवहार में लाए हैं। ==अलंकार==अलंकारों का प्रयोग भारतेंदु जी के काव्य में सहज रूप से हुआ है। उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक और संदेह अलंकारों के प्रति भारतेंदु जी की अधिक रुचि है। शब्दालंकारों को भी स्थान मिला है।निम्न पंक्तियों में उत्प्रेक्षा और अनुप्रास अलंकार की योजना देखिएकृष्ण-चरित्र(1883)तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाए।झुके कूल सों जल परसन हित मनहु सुहाए।। ==साहित्य में स्थान=|विविधआधुनिक हिंदी साहित्य में भारतेंदु जी का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। भारतेंदु बहुमुखी प्रतिभा के स्वामी थे। कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास, निबंध आदि सभी क्षेत्रों में उनकी देन अपूर्व है।भारतेंदु जी हिंदी में नव जागरण का संदेश लेकर अवतरित हुए। उन्होंने हिंदी के सर्वांगीण विकास में महत्वपूर्ण कार्य किया। भाव, भाषा और शैली में नवीनता तथा मौलिकता का समावेश करके उन्हें आधुनिक काल के अनुरूप बनाया।आधुनिक हिंदी के वे जन्मदाता माने जाते हैं। हिंदी के नाटकों का सूत्रपात भी उन्हीं के द्वारा हुआ।भारतेंदु जी अपने समय के साहित्यिक नेता थे। उनसे कितने ही प्रतिभाशाली लेखकों को जन्म मिला। मातृ-भाषा की सेवा में उन्होंने अपना जीवन ही नहीं संपूर्ण धन भी अर्पित कर दिया। हिंदी भाषा की उन्नति उनका मूलमंत्र था -निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को शूल।। अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण भारतेंदु हिंदी साहित्याकाश के एक दैदिप्यमान नक्षत्र बन गए और उनका युग भारतेंदु युग के नाम से प्रसिद्ध हुआ। =|जीवनी=[[भारतेंदु हरिश्चंद्र की रचनाएँ ==/ परिचय]]}}
* [[मातृभाषा प्रेम पर दोहे / भारतेंदु हरिश्चंद्र]]
* [[पद / भारतेंदु हरिश्चंद्र]]