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<br>चौ०-आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी॥
<br>सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥पानी॥१॥
<br>जानि कृपाकर किंकर मोहू। सब मिलि करहु छाड़ि छल छोहू॥
<br>निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं। तातें बिनय करउँ सब पाही॥पाही॥२॥
<br>करन चहउँ रघुपति गुन गाहा। लघु मति मोरि चरित अवगाहा॥
<br>सूझ न एकउ अंग उपाऊ। मन मति रंक मनोरथ राऊ॥राऊ॥३॥
<br>मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी। चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी॥
<br>छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई। सुनिहहिं बालबचन मन लाई॥लाई॥४॥
<br>जौं बालक कह तोतरि बाता। सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता॥
<br>हँसिहहिं कूर कुटिल कुबिचारी। जे पर दूषन भूषनधारी॥भूषनधारी॥५॥
<br>निज कबित्त केहि लाग न नीका। सरस होउ अथवा अति फीका॥
<br>जे पर भनिति सुनत हरषाहीं। ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं॥नाहीं॥६॥
<br>जग बहु नर सर सरि सम भाई। जे निज बाढ़ि बढ़हिं जल पाई॥
<br>सज्जन सकृत सिंधु सम कोई। देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई॥जोई॥७॥
<br>दो०-भाग छोट अभिलाषु बड़ करउँ एक बिस्वास।
<br>पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करिहहिं उपहास॥८॥
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<br>चौ०-खल परिहास होइ हित मोरा। काक कहहिं कलकंठ कठोरा॥
<br>हंसहि बक दादुर चातकही। हँसहिं मलिन खल बिमल बतकही॥बतकही॥१॥
<br>कबित रसिक न राम पद नेहू। तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू॥
<br>भाषा भनिति भोरि मति मोरी। हँसिबे जोग हँसें नहिं खोरी॥खोरी॥२॥
<br>प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी। तिन्हहि कथा सुनि लागहि फीकी॥
<br>हरि हर पद रति मति न कुतरकी। तिन्ह कहुँ मधुर कथा रघुबर की॥की॥३॥
<br>राम भगति भूषित जियँ जानी। सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी॥
<br>कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू। सकल कला सब बिद्या हीनू॥हीनू॥४॥
<br>आखर अरथ अलंकृति नाना। छंद प्रबंध अनेक बिधाना॥
<br>भाव भेद रस भेद अपारा। कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा॥प्रकारा॥५॥<br>कबित बिबेक एक नहिं मोरें। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे॥कोरे॥६॥
<br>दो०-भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक।
<br>सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिवेक॥९॥
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<br>चौ०-एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा॥
<br>मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी॥पुरारी॥१॥
<br>भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ। राम नाम बिनु सोह न सोऊ॥
<br>बिधुबदनी सब भाँति सँवारी। सोह न बसन बिना बर नारी॥नारी॥२॥
<br>सब गुन रहित कुकबि कृत बानी। राम नाम जस अंकित जानी॥
<br>सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही। मधुकर सरिस संत गुनग्राही॥गुनग्राही॥३॥
<br>जदपि कबित रस एकउ नाहीं। राम प्रताप प्रकट एहि माहीं॥
<br>सोइ भरोस मोरें मन आवा। केहिं न सुसंग बड़प्पनु पावा॥पावा॥४॥
<br>धूमउ तजइ सहज करुआई। अगरु प्रसंग सुगंध बसाई॥
<br>भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी। राम कथा जग मंगल करनी॥करनी॥५॥
<br>छं०-मंगल करनि कलि मल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की॥
<br>गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की॥
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<br>चौ०-मनि मानिक मुकुता छबि जैसी। अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी॥
<br>नृप किरीट तरुनी तनु पाई। लहहिं सकल सोभा अधिकाई॥अधिकाई॥१॥
<br>तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं। उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं॥
<br>भगति हेतु बिधि भवन बिहाई। सुमिरत सारद आवति धाई॥धाई॥२॥
<br>राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ। सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ॥
<br>कबि कोबिद अस हृदयँ बिचारी। गावहिं हरि जस कलि मल हारी॥हारी॥३॥
<br>कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना। सिर धुनि गिरा लगत पछिताना॥
<br>हृदय सिंधु मति सीप समाना। स्वाति सारदा कहहिं सुजाना॥सुजाना॥४॥<br>जौं बरषइ बर बारि बिचारू। होहिं कबित मुकुतामनि चारू॥चारू॥५॥
<br>दो०-जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग।
<br>पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग॥११॥
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