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<br>चौ०-जौं तुम्ह मिलतेहु प्रथम मुनीसा। सुनतिउँ सिख तुम्हारि धरि सीसा॥
<br>अब मैं जन्मु संभु हित हारा। को गुन दूषन करै बिचारा॥बिचारा॥१॥
<br>जौं तुम्हरे हठ हृदयँ बिसेषी। रहि न जाइ बिनु किएँ बरेषी॥
<br>तौ कौतुकिअन्ह आलसु नाहीं। बर कन्या अनेक जग माहीं॥माहीं॥२॥
<br>जन्म कोटि लगि रगर हमारी। बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी॥
<br>तजउँ न नारद कर उपदेसू। आपु कहहि सत बार महेसू॥महेसू॥३॥
<br>मैं पा परउँ कहइ जगदंबा। तुम्ह गृह गवनहु भयउ बिलंबा॥
<br>देखि प्रेमु बोले मुनि ग्यानी। जय जय जगदंबिके भवानी॥भवानी॥४॥
<br>दो०-तुम्ह माया भगवान सिव सकल जगत पितु मातु।
<br>नाइ चरन सिर मुनि चले पुनि पुनि हरषत गातु॥८१॥
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<br>चौ०-जाइ मुनिन्ह हिमवंतु पठाए। करि बिनती गिरजहिं गृह ल्याए॥
<br>बहुरि सप्तरिषि सिव पहिं जाई। कथा उमा कै सकल सुनाई॥सुनाई॥१॥
<br>भए मगन सिव सुनत सनेहा। हरषि सप्तरिषि गवने गेहा॥
<br>मनु थिर करि तब संभु सुजाना। लगे करन रघुनायक ध्याना॥ध्याना॥२॥
<br>तारकु असुर भयउ तेहि काला। भुज प्रताप बल तेज बिसाला॥
<br>तेंहि सब लोक लोकपति जीते। भए देव सुख संपति रीते॥रीते॥३॥
<br>अजर अमर सो जीति न जाई। हारे सुर करि बिबिध लराई॥
<br>तब बिरंचि सन जाइ पुकारे। देखे बिधि सब देव दुखारे॥दुखारे॥४॥
<br>दो०-सब सन कहा बुझाइ बिधि दनुज निधन तब होइ।
<br>संभु सुक्र संभूत सुत एहि जीतइ रन सोइ॥८२॥
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<br>चौ०-मोर कहा सुनि करहु उपाई। होइहि ईस्वर करिहि सहाई॥
<br>सतीं जो तजी दच्छ मख देहा। जनमी जाइ हिमाचल गेहा॥गेहा॥१॥
<br>तेहिं तपु कीन्ह संभु पति लागी। सिव समाधि बैठे सबु त्यागी॥
<br>जदपि अहइ असमंजस भारी। तदपि बात एक सुनहु हमारी॥हमारी॥२॥
<br>पठवहु कामु जाइ सिव पाहीं। करै छोभु संकर मन माहीं॥
<br>तब हम जाइ सिवहि सिर नाई। करवाउब बिबाहु बरिआई॥बरिआई॥३॥
<br>एहि बिधि भलेहि देवहित होई। मर अति नीक कहइ सबु कोई॥
<br>अस्तुति सुरन्ह कीन्हि अति हेतू। प्रगटेउ बिषमबान झषकेतू॥झषकेतू॥४॥
<br>दो०-सुरन्ह कहीं निज बिपति सब सुनि मन कीन्ह बिचार।
<br>संभु बिरोध न कुसल मोहि बिहसि कहेउ अस मार॥८३॥
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<br>चौ०-तदपि करब मैं काजु तुम्हारा। श्रुति कह परम धरम उपकारा॥
<br>पर हित लागि तजइ जो देही। संतत संत प्रसंसहिं तेही॥तेही॥१॥
<br>अस कहि चलेउ सबहि सिरु नाई। सुमन धनुष कर सहित सहाई॥
<br>चलत मार अस हृदयँ बिचारा। सिव बिरोध ध्रुव मरनु हमारा॥हमारा॥२॥
<br>तब आपन प्रभाउ बिस्तारा। निज बस कीन्ह सकल संसारा॥
<br>कोपेउ जबहि बारिचरकेतू। छन महुँ मिटे सकल श्रुति सेतू॥सेतू॥३॥
<br>ब्रह्मचर्ज ब्रत संजम नाना। धीरज धरम ग्यान बिग्याना॥
<br>सदाचार जप जोग बिरागा। सभय बिबेक कटकु सब भागा॥भागा॥४॥
<br>छं०-भागेउ बिबेक सहाय सहित सो सुभट संजुग महि मुरे।
<br>सदग्रंथ पर्बत कंदरन्हि महुँ जाइ तेहि अवसर दुरे॥
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<br>चौ०-सब के हृदयँ मदन अभिलाषा। लता निहारि नवहिं तरु साखा॥
<br>नदीं उमगि अंबुधि कहुँ धाईं। संगम करहिं तलाव तलाईं॥तलाईं॥१॥
<br>जहँ असि दसा जड़न्ह कै बरनी। को कहि सकइ सचेतन करनी॥
<br>पसु पच्छी नभ जल थलचारी। भए कामबस समय बिसारी॥बिसारी॥२॥
<br>मदन अंध ब्याकुल सब लोका। निसिदिनु नहिं अवलोकहिं कोका॥
<br>देव दनुज नर किंनर ब्याला। प्रेत पिसाच भूत बेताला॥बेताला॥३॥
<br>इन्ह कै दसा न कहेउँ बखानी। सदा काम के चेरे जानी॥
<br>सिद्ध बिरक्त महामुनि जोगी। तेपि कामबस भए बियोगी॥बियोगी॥४॥
<br>छं०-भए कामबस जोगीस तापस पावँरन्हि की को कहै।
<br>देखहिं चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे॥
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