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<br>उभय घरी अस कौतुक भयऊ। जौ लगि कामु संभु पहिं गयऊ॥
<br>सिवहि बिलोकि ससंकेउ मारू। भयउ जथाथिति सबु संसारू॥संसारू॥१॥
<br>भए तुरत सब जीव सुखारे। जिमि मद उतरि गएँ मतवारे॥
<br>रुद्रहि देखि मदन भय माना। दुराधरष दुर्गम भगवाना॥भगवाना॥२॥
<br>फिरत लाज कछु करि नहिं जाई। मरनु ठानि मन रचेसि उपाई॥
<br>प्रगटेसि तुरत रुचिर रितुराजा। कुसुमित नव तरु राजि बिराजा॥बिराजा॥३॥
<br>बन उपबन बापिका तड़ागा। परम सुभग सब दिसा बिभागा॥
<br>जहँ तहँ जनु उमगत अनुरागा। देखि मुएहुँ मन मनसिज जागा॥जागा॥४॥
<br>छं०-जागइ मनोभव मुएहुँ मन बन सुभगता न परै कही।
<br>सीतल सुगंध सुमंद मारुत मदन अनल सखा सही॥
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<br>चौ०-देखि रसाल बिटप बर साखा। तेहि पर चढ़ेउ मदनु मन माखा॥
<br>सुमन चाप निज सर संधाने। अति रिस ताकि श्रवन लगि ताने॥ताने॥१॥
<br>छाड़े बिषम बिसिख उर लागे। छूटि समाधि संभु तब जागे॥
<br>भयउ ईस मन छोभु बिसेषी। नयन उघारि सकल दिसि देखी॥देखी॥२॥
<br>सौरभ पल्लव मदनु बिलोका। भयउ कोपु कंपेउ त्रैलोका॥
<br>तब सिवँ तीसर नयन उघारा। चितवत कामु भयउ जरि छारा॥छारा॥३॥
<br>हाहाकार भयउ जग भारी। डरपे सुर भए असुर सुखारी॥
<br>समुझि कामसुखु सोचहिं भोगी। भए अकंटक साधक जोगी॥जोगी॥४॥
<br>छं०-जोगी अकंटक भए पति गति सुनत रति मुरुछित भई।
<br>रोदति बदति बहु भाँति करुना करति संकर पहिं गई।
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<br>चौ०-जब जदुबंस कृष्न अवतारा। होइहि हरन महा महिभारा॥
<br>कृष्न तनय होइहि पति तोरा। बचनु अन्यथा होइ न मोरा॥मोरा॥१॥
<br>रति गवनी सुनि संकर बानी। कथा अपर अब कहउँ बखानी॥
<br>देवन्ह समाचार सब पाए। ब्रह्मादिक बैकुंठ सिधाए॥सिधाए॥२॥
<br>सब सुर बिष्नु बिरंचि समेता। गए जहाँ सिव कृपानिकेता॥
<br>पृथक पृथक तिन्ह कीन्हि प्रसंसा। भए प्रसन्न चंद्र अवतंसा॥अवतंसा॥३॥
<br>बोले कृपासिंधु बृषकेतू। कहहु अमर आए केहि हेतू॥
<br>कह बिधि तुम्ह प्रभु अंतरजामी। तदपि भगति बस बिनवउँ स्वामी॥स्वामी॥४॥
<br>दो०-सकल सुरन्ह के हृदयँ अस संकर परम उछाहु।
<br>निज नयनन्हि देखा चहहिं नाथ तुम्हार बिबाहु॥८८॥
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<br>चौ०-यह उत्सव देखिअ भरि लोचन। सोइ कछु करहु मदन मद मोचन।
<br>कामु जारि रति कहुँ बरु दीन्हा। कृपासिंधु यह अति भल कीन्हा॥कीन्हा॥१॥
<br>सासति करि पुनि करहिं पसाऊ। नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाऊ॥
<br>पारबतीं तपु कीन्ह अपारा। करहु तासु अब अंगीकारा॥अंगीकारा॥२॥
<br>सुनि बिधि बिनय समुझि प्रभु बानी। ऐसेइ होउ कहा सुखु मानी॥
<br>तब देवन्ह दुंदुभीं बजाईं। बरषि सुमन जय जय सुर साईं॥साईं॥३॥
<br>अवसरु जानि सप्तरिषि आए। तुरतहिं बिधि गिरिभवन पठाए॥
<br>प्रथम गए जहँ रही भवानी। बोले मधुर बचन छल सानी॥सानी॥४॥
<br>दो०-कहा हमार न सुनेहु तब नारद कें उपदेस।
<br>अब भा झूठ तुम्हार पन जारेउ कामु महेस॥८९॥
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<br>चौ०-सुनि बोलीं मुसकाइ भवानी। उचित कहेहु मुनिबर बिग्यानी॥
<br>तुम्हरें जान कामु अब जारा। अब लगि संभु रहे सबिकारा॥सबिकारा॥१॥
<br>हमरें जान सदा सिव जोगी। अज अनवद्य अकाम अभोगी॥
<br>जौं मैं सिव सेये अस जानी। प्रीति समेत कर्म मन बानी॥बानी॥२॥
<br>तौ हमार पन सुनहु मुनीसा। करिहहिं सत्य कृपानिधि ईसा॥
<br>तुम्ह जो कहा हर जारेउ मारा। सोइ अति बड़ अबिबेकु तुम्हारा॥तुम्हारा॥३॥
<br>तात अनल कर सहज सुभाऊ। हिम तेहि निकट जाइ नहिं काऊ॥
<br>गएँ समीप सो अवसि नसाई। असि मन्मथ महेस की नाई॥नाई॥४॥
<br>दो०-हियँ हरषे मुनि बचन सुनि देखि प्रीति बिस्वास॥
<br>चले भवानिहि नाइ सिर गए हिमाचल पास॥९०॥
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<br>चौ०-सबु प्रसंगु गिरिपतिहि सुनावा। मदन दहन सुनि अति दुखु पावा॥
<br>बहुरि कहेउ रति कर बरदाना। सुनि हिमवंत बहुत सुखु माना॥माना॥१॥
<br>हृदयँ बिचारि संभु प्रभुताई। सादर मुनिबर लिए बोलाई॥
<br>सुदिनु सुनखतु सुघरी सोचाई। बेगि बेदबिधि लगन धराई॥धराई॥२॥
<br>पत्री सप्तरिषिन्ह सोइ दीन्ही। गहि पद बिनय हिमाचल कीन्ही॥
<br>जाइ बिधिहि दीन्हि सो पाती। बाचत प्रीति न हृदयँ समाती॥समाती॥३॥
<br>लगन बाचि अज सबहि सुनाई। हरषे मुनि सब सुर समुदाई॥
<br>सुमन बृष्टि नभ बाजन बाजे। मंगल कलस दसहुँ दिसि साजे॥साजे॥४॥
<br>दो०-लगे सँवारन सकल सुर बाहन बिबिध बिमान।
<br>होहिं सगुन मंगल सुभद करहिं अपछरा गान॥९१॥
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<br>सिवहि संभुगन करहिं सिंगारा। जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा॥
<br>कुंडल कंकन पहिरे ब्याला। तन बिभूति पट केहरि छाला॥छाला॥१॥
<br>ससि ललाट सुंदर सिर गंगा। नयन तीनि उपबीत भुजंगा॥
<br>गरल कंठ उर नर सिर माला। असिव बेष सिवधाम कृपाला॥कृपाला॥२॥
<br>कर त्रिसूल अरु डमरु बिराजा। चले बसहँ चढ़ि बाजहिं बाजा॥
<br>देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं। बर लायक दुलहिनि जग नाहीं॥नाहीं॥३॥
<br>बिष्नु बिरंचि आदि सुरब्राता। चढ़ि चढ़ि बाहन चले बराता॥
<br>सुर समाज सब भाँति अनूपा। नहिं बरात दूलह अनुरूपा॥अनुरूपा॥४॥
<br>दो०-बिष्नु कहा अस बिहसि तब बोलि सकल दिसिराज।
<br>बिलग बिलग होइ चलहु सब निज निज सहित समाज॥९२॥
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<br>चौ०-बर अनुहारि बरात न भाई। हँसी करैहहु पर पुर जाई॥
<br>बिष्नु बचन सुनि सुर मुसकाने। निज निज सेन सहित बिलगाने॥बिलगाने॥१॥
<br>मनहीं मन महेसु मुसुकाहीं। हरि के बिंग्य बचन नहिं जाहीं॥
<br>अति प्रिय बचन सुनत प्रिय केरे। भृंगिहि प्रेरि सकल गन टेरे॥टेरे॥२॥
<br>सिव अनुसासन सुनि सब आए। प्रभु पद जलज सीस तिन्ह नाए॥
<br>नाना बाहन नाना बेषा। बिहसे सिव समाज निज देखा॥देखा॥॥३॥
<br>कोउ मुखहीन बिपुल मुख काहू। बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू॥
<br>बिपुल नयन कोउ नयन बिहीना। रिष्टपुष्ट कोउ अति तनखीना॥तनखीना॥४॥
<br>छं०-तन खीन कोउ अति पीन पावन कोउ अपावन गति धरें।
<br>भूषन कराल कपाल कर सब सद्य सोनित तन भरें॥
<br>देखत अति बिपरीत बोलहिं बचन बिचित्र बिधि॥९३॥
<br>जस दूलहु तसि बनी बराता। कौतुक बिबिध होहिं मग जाता॥
<br>इहाँ हिमाचल रचेउ बिताना। अति बिचित्र नहिं जाइ बखाना॥बखाना॥१॥
<br>सैल सकल जहँ लगि जग माहीं। लघु बिसाल नहिं बरनि सिराहीं॥
<br>बन सागर सब नदीं तलावा। हिमगिरि सब कहुँ नेवत पठावा॥पठावा॥२॥
<br>कामरूप सुंदर तन धारी। सहित समाज सहित बर नारी॥
<br>गए सकल तुहिनाचल गेहा। गावहिं मंगल सहित सनेहा॥सनेहा॥॥३॥
<br>प्रथमहिं गिरि बहु गृह सँवराए। जथाजोगु तहँ तहँ सब छाए॥
<br>पुर सोभा अवलोकि सुहाई। लागइ लघु बिरंचि निपुनाई॥निपुनाई॥४॥
<br>छं०-लघु लाग बिधि की निपुनता अवलोकि पुर सोभा सही।
<br>बन बाग कूप तड़ाग सरिता सुभग सब सक को कही॥
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<br>चौ०-नगर निकट बरात सुनि आई। पुर खरभरु सोभा अधिकाई॥
<br>करि बनाव सजि बाहन नाना। चले लेन सादर अगवाना॥अगवाना॥१॥
<br>हियँ हरषे सुर सेन निहारी। हरिहि देखि अति भए सुखारी॥
<br>सिव समाज जब देखन लागे। बिडरि चले बाहन सब भागे॥भागे॥२॥
<br>धरि धीरजु तहँ रहे सयाने। बालक सब लै जीव पराने॥
<br>गएँ भवन पूछहिं पितु माता। कहहिं बचन भय कंपित गाता॥गाता॥॥३॥
<br>कहिअ काह कहि जाइ न बाता। जम कर धार किधौं बरिआता॥
<br>बरु बौराह बसहँ असवारा। ब्याल कपाल बिभूषन छारा॥छारा॥४॥
<br>छं०-तन छार ब्याल कपाल भूषन नगन जटिल भयंकरा।
<br>सँग भूत प्रेत पिसाच जोगिनि बिकट मुख रजनीचरा॥
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<br>चौ०-लै अगवान बरातहि आए। दिए सबहि जनवास सुहाए॥
<br>मैनाँ सुभ आरती सँवारी। संग सुमंगल गावहिं नारी॥नारी॥१॥
<br>कंचन थार सोह बर पानी। परिछन चली हरहि हरषानी॥
<br>बिकट बेष रुद्रहि जब देखा। अबलन्ह उर भय भयउ बिसेषा॥बिसेषा॥२॥
<br>भागि भवन पैठीं अति त्रासा। गए महेसु जहाँ जनवासा॥
<br>मैना हृदयँ भयउ दुखु भारी। लीन्ही बोलि गिरीसकुमारी॥गिरीसकुमारी॥३॥
<br>अधिक सनेहँ गोद बैठारी। स्याम सरोज नयन भरे बारी॥
<br>जेहिं बिधि तुम्हहि रूपु अस दीन्हा। तेहिं जड़ बरु बाउर कस कीन्हा॥कीन्हा॥४॥
<br>छं०- कस कीन्ह बरु बौराह बिधि जेहिं तुम्हहि सुंदरता दई।
<br>जो फलु चहिअ सुरतरुहिं सो बरबस बबूरहिं लागई॥
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<br>चौ०-नारद कर मैं काह बिगारा। भवनु मोर जिन्ह बसत उजारा॥
<br>अस उपदेसु उमहि जिन्ह दीन्हा। बौरे बरहि लगि तपु कीन्हा॥कीन्हा॥१॥
<br>साचेहुँ उन्ह के मोह न माया। उदासीन धनु धामु न जाया॥
<br>पर घर घालक लाज न भीरा। बाझँ कि जान प्रसव कै पीरा॥पीरा॥२॥
<br>जननिहि बिकल बिलोकि भवानी। बोली जुत बिबेक मृदु बानी॥
<br>अस बिचारि सोचहि मति माता। सो न टरइ जो रचइ बिधाता॥बिधाता॥३॥
<br>करम लिखा जौ बाउर नाहू। तौ कत दोसु लगाइअ काहू॥
<br>तुम्ह सन मिटहिं कि बिधि के अंका। मातु ब्यर्थ जनि लेहु कलंका॥कलंका॥४॥
<br>छं०-जनि लेहु मातु कलंकु करुना परिहरहु अवसर नहीं।
<br>दुखु सुखु जो लिखा लिलार हमरें जाब जहँ पाउब तहीं॥
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<br>चौ०-तब नारद सबहि समुझावा। पूरुब कथाप्रसंगु सुनावा॥
<br>मयना सत्य सुनहु मम बानी। जगदंबा तव सुता भवानी॥भवानी॥१॥
<br>अजा अनादि सक्ति अबिनासिनि। सदा संभु अरधंग निवासिनि॥
<br>जग संभव पालन लय कारिनि। निज इच्छा लीला बपु धारिनि॥धारिनि॥२॥
<br>जनमीं प्रथम दच्छ गृह जाई। नामु सती सुंदर तनु पाई॥
<br>तहँहुँ सती संकरहि बिबाहीं। कथा प्रसिद्ध सकल जग माहीं॥माहीं॥३॥
<br>एक बार आवत सिव संगा। देखेउ रघुकुल कमल पतंगा॥
<br>भयउ मोहु सिव कहा न कीन्हा। भ्रम बस बेषु सीय कर लीन्हा॥लीन्हा॥४॥
<br>छं०-सिय बेषु सती जो कीन्ह तेहि अपराध संकर परिहरीं।
<br>हर बिरहँ जाइ बहोरि पितु कें जग्य जोगानल जरीं॥
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<br>चौ०-तब मयना हिमवंतु अनंदे। पुनि पुनि पारबती पद बंदे॥
<br>नारि पुरुष सिसु जुबा सयाने। नगर लोग सब अति हरषाने॥हरषाने॥१॥
<br>लगे होन पुर मंगलगाना। सजे सबहि हाटक घट नाना॥
<br>भाँति अनेक भई जेवनारा। सूपसास्त्र जस कछु ब्यवहारा॥ब्यवहारा॥२॥
<br>सो जेवनार कि जाइ बखानी। बसहिं भवन जेहिं मातु भवानी॥
<br>सादर बोले सकल बराती। बिष्नु बिरंचि देव सब जाती॥जाती॥३॥
<br>बिबिधि पाँति बैठी जेवनारा। लागे परुसन निपुन सुआरा॥
<br>नारिबृंद सुर जेवँत जानी। लगीं देन गारीं मृदु बानी॥बानी॥४॥
<br>छं०-गारीं मधुर स्वर देहिं सुंदरि बिंग्य बचन सुनावहीं।
<br>भोजनु करहिं सुर अति बिलंबु बिनोदु सुनि सचु पावहीं॥
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<br>चौ०-बोलि सकल सुर सादर लीन्हे। सबहि जथोचित आसन दीन्हे॥
<br>बेदी बेद बिधान सँवारी। सुभग सुमंगल गावहिं नारी॥नारी॥१॥
<br>सिंघासनु अति दिब्य सुहावा। जाइ न बरनि बिरंचि बनावा॥
<br>बैठे सिव बिप्रन्ह सिरु नाई। हृदयँ सुमिरि निज प्रभु रघुराई॥रघुराई॥२॥
<br>बहुरि मुनीसन्ह उमा बोलाई। करि सिंगारु सखीं लै आई॥
<br>देखत रूपु सकल सुर मोहे। बरनै छबि अस जग कबि को है॥है॥३॥
<br>जगदंबिका जानि भव भामा। सुरन्ह मनहिं मन कीन्ह प्रनामा॥
<br>सुंदरता मरजाद भवानी। जाइ न कोटिहुँ बदन बखानी॥बखानी॥४॥
<br>छं०-कोटिहुँ बदन नहिं बनै बरनत जग जननि सोभा महा।
<br>सकुचहिं कहत श्रुति सेष सारद मंदमति तुलसी कहा॥
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