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श्रीजानकीवल्लभो विजयते<br>
श्रीरामचरितमानस'''<br>
द्वितीय सोपान<br />
अयोध्या-काण्ड'''<br>
श्लोक<br>
<br>दो0-सब कें उर अभिलाषु अस कहहिं मनाइ महेसु।
<br> आप अछत जुबराज पद रामहि देउ नरेसु।।1।।<br>
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एक समय सब सहित समाजा। राजसभाँ रघुराजु बिराजा।।<br>
सकल सुकृत मूरति नरनाहू। राम सुजसु सुनि अतिहि उछाहू।। १।।<br >
नृप सब रहहिं कृपा अभिलाषें। लोकप करहिं प्रीति रुख राखें।।<br>
तिभुवन तीनि काल जग माहीं। भूरि भाग दसरथ सम नाहीं।। २।। <br>
नृप जुबराज राम कहुँ देहू। जीवन जनम लाहु किन लेहू।।४।। <br>
दो0-यह बिचारु उर आनि नृप सुदिनु सुअवसरु पाइ।<br>
प्रेम पुलकि तन मुदित मन गुरहि सुनायउ जाइ।।2।।<br><br>
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कहइ भुआलु सुनिअ मुनिनायक। भए राम सब बिधि सब लायक।।<br>
मुनि प्रसन्न लखि सहज सनेहू। कहेउ नरेस रजायसु देहू।।४।। <br>
दो0-राजन राउर नामु जसु सब अभिमत दातार।<br>
फल अनुगामी महिप मनि मन अभिलाषु तुम्हार।।3।।<br><br>
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सब बिधि गुरु प्रसन्न जियँ जानी। बोलेउ राउ रहँसि मृदु बानी।।<br>
भयउ तुम्हार तनय सोइ स्वामी। रामु पुनीत प्रेम अनुगामी।।<४।।br>
दो0-बेगि बिलंबु न करिअ नृप साजिअ सबुइ समाजु।<br>
सुदिन सुमंगलु तबहिं जब रामु होहिं जुबराजु।।4।।<br><br>
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मुदित महिपति मंदिर आए। सेवक सचिव सुमंत्रु बोलाए।।<br>
कहि जयजीव सीस तिन्ह नाए। भूप सुमंगल बचन सुनाए।। १ ।। <br>
जौं पाँचहि मत लागै नीका। करहु हरषि हियँ रामहि टीका।।२ ।। < br>
मंत्री मुदित सुनत प्रिय बानी। अभिमत बिरवँ परेउ जनु पानी।। <br>
बिनती सचिव करहि कर जोरी। जिअहु जगतपति बरिस करोरी।।३।।<br>
नृपहि मोदु सुनि सचिव सुभाषा। बढ़त बौंड़ जनु लही सुसाखा।।४।। <br>
दो0-कहेउ भूप मुनिराज कर जोइ जोइ आयसु होइ।<br>
राम राज अभिषेक हित बेगि करहु सोइ सोइ।।5।।<br><br>
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हरषि मुनीस कहेउ मृदु बानी। आनहु सकल सुतीरथ पानी।।<br>
पूजहु गनपति गुर कुलदेवा। सब बिधि करहु भूमिसुर सेवा।।४।।<br>
दो0-ध्वज पताक तोरन कलस सजहु तुरग रथ नाग।<br>
सिर धरि मुनिबर बचन सबु निज निज काजहिं लाग।।6।।<br />
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जो मुनीस जेहि आयसु दीन्हा। सो तेहिं काजु प्रथम जनु कीन्हा।।<br>
रामहि बंधु सोच दिन राती। अंडन्हि कमठ ह्रदउ जेहि भाँती।।<br>
दो0-एहि अवसर मंगलु परम सुनि रहँसेउ रनिवासु।<br>
सोभत लखि बिधु बढ़त जनु बारिधि बीचि बिलासु।।7।।<br><br>
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प्रथम जाइ जिन्ह बचन सुनाए। भूषन बसन भूरि तिन्ह पाए।।<br>
गावहिं मंगल कोकिलबयनीं। बिधुबदनीं मृगसावकनयनीं।।<br>
दो0-राम राज अभिषेकु सुनि हियँ हरषे नर नारि।<br>
लगे सुमंगल सजन सब बिधि अनुकूल बिचारि।।8।।<br><br>
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तब नरनाहँ बसिष्ठु बोलाए। रामधाम सिख देन पठाए।।<br>
आयसु होइ सो करौं गोसाई। सेवक लहइ स्वामि सेवकाई।।<br>
दो0-सुनि सनेह साने बचन मुनि रघुबरहि प्रसंस।<br>
राम कस न तुम्ह कहहु अस हंस बंस अवतंस।।9।।<br><br>
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बरनि राम गुन सीलु सुभाऊ। बोले प्रेम पुलकि मुनिराऊ।।<br>
प्रभु सप्रेम पछितानि सुहाई। हरउ भगत मन कै कुटिलाई।।<br>
दो0-तेहि अवसर आए लखन मगन प्रेम आनंद।<br>
सनमाने प्रिय बचन कहि रघुकुल कैरव चंद।।10।।<br><br>
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बाजहिं बाजने बिबिध बिधाना। पुर प्रमोदु नहिं जाइ बखाना।।<br />
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