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ओ आकाश / दीनू कश्यप

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कंधे पर लटकी है जो बंदूक
देखो--------
 
यह हमारे भारी भरकम बूट
ये मेरे नहीं हैं।
 
ओ आकाश
ये नहीं है मेरे
इन्हें बनवाया होगा
किसी महत्वकांक्षी ने
 
ओ आकाश
ये मेरे नहीं----------
लेकिन उन्हें पहले से तालाश थी
मुझ जैसी कद काठी की
 (जबकि उनका पान चबाता गबरू
कम नहीं था मुझसे किसी बात से।)
मुझे ठेलनी है अपनी सरहद
किन्ही बेगाने टुकड़े पर
 
ओ आकाश
ज़िन्दा रहने का यह बीज गणित
वह गुथी हुई उग रही है
संगीनो की टहनियों पर।
 
ओ आकाश
युद्ध के इस ऊसर मैदान में
इस मरु प्रद्श में
ठण्डे पानी की बावडियां नहीं है।
 
</poem>
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