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गुर आगमनु सुनत रघुनाथा। द्वार आइ पद नायउ माथा।। १।। <br>
सादर अरघ देइ घर आने। सोरह भाँति पूजि सनमाने।।<br>
गहे चरन सिय सहित बहोरी। बोले रामु कमल कर जोरी।।जोरी।।२।।<२।।brbr>
सेवक सदन स्वामि आगमनू। मंगल मूल अमंगल दमनू।।<br>
तदपि उचित जनु बोलि सप्रीती। पठइअ काज नाथ असि नीती।।३।।<br>
दो0-नामु मंथरा मंदमति चेरी कैकेइ केरि।<br>
अजस पेटारी ताहि करि गई गिरा मति फेरि।।12।।<br><br>
दीख मंथरा नगरु बनावा। मंजुल मंगल बाज बधावा।।<br /b>
पूछेसि लोगन्ह काह उछाहू। राम तिलकु सुनि भा उर दाहू।।<br>
करइ बिचारु कुबुद्धि कुजाती। होइ अकाजु कवनि बिधि राती।।<br>
दो0-सभय रानि कह कहसि किन कुसल रामु महिपालु।<br>
लखनु भरतु रिपुदमनु सुनि भा कुबरी उर सालु।।13।।<br><br>
कत सिख देइ हमहि कोउ माई। गालु करब केहि कर बलु पाई।।<br />रामहि छाड़ि कुसल केहि आजू। जेहि जनेसु देइ जुबराजू।।<br /b>भयउ कौसिलहि बिधि अति दाहिन। देखत गरब रहत उर नाहिन।।<br />देखेहु कस न जाइ सब सोभा। जो अवलोकि मोर मनु छोभा।।<br />पूतु बिदेस न सोचु तुम्हारें। जानति हहु बस नाहु हमारें।।<br />नीद बहुत प्रिय सेज तुराई। लखहु न भूप कपट चतुराई।।<br />सुनि प्रिय बचन मलिन मनु जानी। झुकी रानि अब रहु अरगानी।।<br />पुनि अस कबहुँ कहसि घरफोरी। तब धरि जीभ कढ़ावउँ तोरी।।<br />दो0-काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि।<br /> तिय बिसेषि पुनि चेरि कहि भरतमातु मुसुकानि।।14।।<br /> &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />प्रियबादिनि सिख दीन्हिउँ तोही। सपनेहुँ तो पर कोपु न मोही।।<br />सुदिनु सुमंगल दायकु सोई। तोर कहा फुर जेहि दिन होई।।<br />जेठ स्वामि सेवक लघु भाई। यह दिनकर कुल रीति सुहाई।।<br />राम तिलकु जौं साँचेहुँ काली। देउँ मागु मन भावत आली।।<br />कौसल्या सम सब महतारी। रामहि सहज सुभायँ पिआरी।।<br />मो पर करहिं सनेहु बिसेषी। मैं करि प्रीति परीछा देखी।।<br />जौं बिधि जनमु देइ करि छोहू। होहुँ राम सिय पूत पुतोहू।।<br />प्रान तें अधिक रामु प्रिय मोरें। तिन्ह कें तिलक छोभु कस तोरें।।<br />दो0-भरत सपथ तोहि सत्य कहु परिहरि कपट दुराउ।<br /> हरष समय बिसमउ करसि कारन मोहि सुनाउ।।15।।<br /> &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />एकहिं बार आस सब पूजी। अब कछु कहब जीभ करि दूजी।।<br />फोरै जोगु कपारु अभागा। भलेउ कहत दुख रउरेहि लागा।।<br />कहहिं झूठि फुरि बात बनाई। ते प्रिय तुम्हहि करुइ मैं माई।।<br />हमहुँ कहबि अब ठकुरसोहाती। नाहिं त मौन रहब दिनु राती।।<br />करि कुरूप बिधि परबस कीन्हा। बवा सो लुनिअ लहिअ जो दीन्हा।।<br />कोउ नृप होउ हमहि का हानी। चेरि छाड़ि अब होब कि रानी।।<br />जारै जोगु सुभाउ हमारा। अनभल देखि न जाइ तुम्हारा।।<br />तातें कछुक बात अनुसारी। छमिअ देबि बड़ि चूक हमारी।।<br />दो0-गूढ़ कपट प्रिय बचन सुनि तीय अधरबुधि रानि।<br /> सुरमाया बस बैरिनिहि सुह्द जानि पतिआनि।।16।।<br /> &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />सादर पुनि पुनि पूँछति ओही। सबरी गान मृगी जनु मोही।।<br />तसि मति फिरी अहइ जसि भाबी। रहसी चेरि घात जनु फाबी।।<br />तुम्ह पूँछहु मैं कहत डेराऊँ। धरेउ मोर घरफोरी नाऊँ।।<br />सजि प्रतीति बहुबिधि गढ़ि छोली। अवध साढ़साती तब बोली।।<br />प्रिय सिय रामु कहा तुम्ह रानी। रामहि तुम्ह प्रिय सो फुरि बानी।।<br />रहा प्रथम अब ते दिन बीते। समउ फिरें रिपु होहिं पिंरीते।।<br />भानु कमल कुल पोषनिहारा। बिनु जल जारि करइ सोइ छारा।।<br />जरि तुम्हारि चह सवति उखारी। रूँधहु करि उपाउ बर बारी।।<br />दो0-तुम्हहि न सोचु सोहाग बल निज बस जानहु राउ।<br /> मन मलीन मुह मीठ नृप राउर सरल सुभाउ।।17।।<br /> &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />चतुर गँभीर राम महतारी। बीचु पाइ निज बात सँवारी।।<br />पठए भरतु भूप ननिअउरें। राम मातु मत जानव रउरें।।<br />सेवहिं सकल सवति मोहि नीकें। गरबित भरत मातु बल पी कें।।<br />सालु तुम्हार कौसिलहि माई। कपट चतुर नहिं होइ जनाई।।<br />राजहि तुम्ह पर प्रेमु बिसेषी। सवति सुभाउ सकइ नहिं देखी।।<br />रची प्रंपचु भूपहि अपनाई। राम तिलक हित लगन धराई।।<br />यह कुल उचित राम कहुँ टीका। सबहि सोहाइ मोहि सुठि नीका।।<br />आगिलि बात समुझि डरु मोही। देउ दैउ फिरि सो फलु ओही।।<br />दो0-रचि पचि कोटिक कुटिलपन कीन्हेसि कपट प्रबोधु।।<br /> कहिसि कथा सत सवति कै जेहि बिधि बाढ़ बिरोधु।।18।।<br /> &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />भावी बस प्रतीति उर आई। पूँछ रानि पुनि सपथ देवाई।।<br />का पूछहुँ तुम्ह अबहुँ न जाना। निज हित अनहित पसु पहिचाना।।<br />भयउ पाखु दिन सजत समाजू। तुम्ह पाई सुधि मोहि सन आजू।।<br />खाइअ पहिरिअ राज तुम्हारें। सत्य कहें नहिं दोषु हमारें।।<br />जौं असत्य कछु कहब बनाई। तौ बिधि देइहि हमहि सजाई।।<br />रामहि तिलक कालि जौं भयऊ।þ तुम्ह कहुँ बिपति बीजु बिधि बयऊ।।<br />रेख खँचाइ कहउँ बलु भाषी। भामिनि भइहु दूध कइ माखी।।<br />जौं सुत सहित करहु सेवकाई। तौ घर रहहु न आन उपाई।।<br />दो0-कद्रूँ बिनतहि दीन्ह दुखु तुम्हहि कौसिलाँ देब।<br /> भरतु बंदिगृह सेइहहिं लखनु राम के नेब।।19।।<br /> &#8211;*&#8211;*&#8211;<br /b>
कैकयसुता सुनत कटु बानी। कहि न सकइ कछु सहमि सुखानी।।<br />
तन पसेउ कदली जिमि काँपी। कुबरीं दसन जीभ तब चाँपी।।<br />
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