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दो0-भूप मनोरथ सुभग बनु सुख सुबिहंग समाजु।<br>
भिल्लनि जिमि छाड़न चहति बचनु भयंकरु बाजु।।28।।<br><br>
मासपारायण, तेरहवाँ विश्राम<br> <br>
सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का। देहु एक बर भरतहि टीका।।<br>
मागउँ दूसर बर कर जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी।।<br>
दो0-सहज सरल रघुबर बचन कुमति कुटिल करि जान।<br>
चलइ जोंक जल बक्रगति जद्यपि सलिलु समान।।42।।<br><br>
रहसी रानि राम रुख पाई। बोली कपट सनेहु जनाई।।<br />सपथ तुम्हार भरत कै आना। हेतु न दूसर मै कछु जाना।।<br />तुम्ह अपराध जोगु नहिं ताता। जननी जनक बंधु सुखदाता।।<br />राम सत्य सबु जो कछु कहहू। तुम्ह पितु मातु बचन रत अहहू।।<br />पितहि बुझाइ कहहु बलि सोई। चौथेंपन जेहिं अजसु न होई।।<br />तुम्ह सम सुअन सुकृत जेहिं दीन्हे। उचित न तासु निरादरु कीन्हे।।<br />लागहिं कुमुख बचन सुभ कैसे। मगहँ गयादिक तीरथ जैसे।।<br />रामहि मातु बचन सब भाए। जिमि सुरसरि गत सलिल सुहाए।।<br />दो0-गइ मुरुछा रामहि सुमिरि नृप फिरि करवट लीन्ह।<br /> सचिव राम आगमन कहि बिनय समय सम कीन्ह।।43।।<br /> &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />  अवनिप अकनि रामु पगु धारे। धरि धीरजु तब नयन उघारे।।<br />सचिवँ सँभारि राउ बैठारे। चरन परत नृप रामु निहारे।।<br />लिए सनेह बिकल उर लाई। गै मनि मनहुँ फनिक फिरि पाई।।<br />रामहि चितइ रहेउ नरनाहू। चला बिलोचन बारि प्रबाहू।।<br />सोक बिबस कछु कहै न पारा। हृदयँ लगावत बारहिं बारा।।<br />बिधिहि मनाव राउ मन माहीं। जेहिं रघुनाथ न कानन जाहीं।।<br />सुमिरि महेसहि कहइ निहोरी। बिनती सुनहु सदासिव मोरी।।<br />आसुतोष तुम्ह अवढर दानी। आरति हरहु दीन जनु जानी।।<br />दो0-तुम्ह प्रेरक सब के हृदयँ सो मति रामहि देहु।<br /> बचनु मोर तजि रहहि घर परिहरि सीलु सनेहु।।44।।<br /> &#8211;*&#8211;*&#8211;<br /> अजसु होउ जग सुजसु नसाऊ। नरक परौ बरु सुरपुरु जाऊ।।<br />सब दुख दुसह सहावहु मोही। लोचन ओट रामु जनि होंही।।<br />अस मन गुनइ राउ नहिं बोला। पीपर पात सरिस मनु डोला।।<br />रघुपति पितहि प्रेमबस जानी। पुनि कछु कहिहि मातु अनुमानी।।<br />देस काल अवसर अनुसारी। बोले बचन बिनीत बिचारी।।<br />तात कहउँ कछु करउँ ढिठाई। अनुचितु छमब जानि लरिकाई।।<br />अति लघु बात लागि दुखु पावा। काहुँ न मोहि कहि प्रथम जनावा।।<br />देखि गोसाइँहि पूँछिउँ माता। सुनि प्रसंगु भए सीतल गाता।।<br />दो0-मंगल समय सनेह बस सोच परिहरिअ तात।<br /> आयसु देइअ हरषि हियँ कहि पुलके प्रभु गात।।45।।<br /> &#8211;*&#8211;*&#8211;<br /> धन्य जनमु जगतीतल तासू। पितहि प्रमोदु चरित सुनि जासू।।<br />चारि पदारथ करतल ताकें। प्रिय पितु मातु प्रान सम जाकें।।<br />आयसु पालि जनम फलु पाई। ऐहउँ बेगिहिं होउ रजाई।।<br />बिदा मातु सन आवउँ मागी। चलिहउँ बनहि बहुरि पग लागी।।<br />अस कहि राम गवनु तब कीन्हा। भूप सोक बसु उतरु न दीन्हा।।<br />नगर ब्यापि गइ बात सुतीछी। छुअत चढ़ी जनु सब तन बीछी।।<br />सुनि भए बिकल सकल नर नारी। बेलि बिटप जिमि देखि दवारी।।<br />जो जहँ सुनइ धुनइ सिरु सोई। बड़ बिषादु नहिं धीरजु होई।।<br />दो0-मुख सुखाहिं लोचन स्त्रवहि सोकु न हृदयँ समाइ।<br /> मनहुँ ०करुन रस कटकई उतरी अवध बजाइ।।46।।<br /> &#8211;*&#8211;*&#8211;<br /> मिलेहि माझ बिधि बात बेगारी। जहँ तहँ देहिं कैकेइहि गारी।।<br />एहि पापिनिहि बूझि का परेऊ। छाइ भवन पर पावकु धरेऊ।।<br />निज कर नयन काढ़ि चह दीखा। डारि सुधा बिषु चाहत चीखा।।<br />कुटिल कठोर कुबुद्धि अभागी। भइ रघुबंस बेनु बन आगी।।<br />पालव बैठि पेड़ु एहिं काटा। सुख महुँ सोक ठाटु धरि ठाटा।।<br />सदा रामु एहि प्रान समाना। कारन कवन कुटिलपनु ठाना।।<br />सत्य कहहिं कबि नारि सुभाऊ। सब बिधि अगहु अगाध दुराऊ।।<br />निज प्रतिबिंबु बरुकु गहि जाई। जानि न जाइ नारि गति भाई।।<br />दो0-काह न पावकु जारि सक का न समुद्र समाइ।<br /> का न करै अबला प्रबल केहि जग कालु न खाइ।।47।।<br /> &#8211;*&#8211;*&#8211;<br /> का सुनाइ बिधि काह सुनावा। का देखाइ चह काह देखावा।।<br />एक कहहिं भल भूप न कीन्हा। बरु बिचारि नहिं कुमतिहि दीन्हा।।<br />जो हठि भयउ सकल दुख भाजनु। अबला बिबस ग्यानु गुनु गा जनु।।<br />एक धरम परमिति पहिचाने। नृपहि दोसु नहिं देहिं सयाने।।<br />सिबि दधीचि हरिचंद कहानी। एक एक सन कहहिं बखानी।।<br />एक भरत कर संमत कहहीं। एक उदास भायँ सुनि रहहीं।।<br />कान मूदि कर रद गहि जीहा। एक कहहिं यह बात अलीहा।।<br />सुकृत जाहिं अस कहत तुम्हारे। रामु भरत कहुँ प्रानपिआरे।।<br />दो0-चंदु चवै बरु अनल कन सुधा होइ बिषतूल।<br /> सपनेहुँ कबहुँ न करहिं किछु भरतु राम प्रतिकूल।।48।।<br /> &#8211;*&#8211;*&#8211;<br /> एक बिधातहिं दूषनु देंहीं। सुधा देखाइ दीन्ह बिषु जेहीं।।<br />खरभरु नगर सोचु सब काहू। दुसह दाहु उर मिटा उछाहू।।<br />बिप्रबधू कुलमान्य जठेरी। जे प्रिय परम कैकेई केरी।।<br />लगीं देन सिख सीलु सराही। बचन बानसम लागहिं ताही।।<br />भरतु न मोहि प्रिय राम समाना। सदा कहहु यहु सबु जगु जाना।।<br />करहु राम पर सहज सनेहू। केहिं अपराध आजु बनु देहू।।<br />कबहुँ न कियहु सवति आरेसू। प्रीति प्रतीति जान सबु देसू।।<br />कौसल्याँ अब काह बिगारा। तुम्ह जेहि लागि बज्र पुर पारा।।<br />दो0-सीय कि पिय सँगु परिहरिहि लखनु कि रहिहहिं धाम।<br /> राजु कि भूँजब भरत पुर नृपु कि जिइहि बिनु राम।।49।।<br /> &#8211;*&#8211;*&#8211;<br /> अस बिचारि उर छाड़हु कोहू। सोक कलंक कोठि जनि होहू।।<br />भरतहि अवसि देहु जुबराजू। कानन काह राम कर काजू।।<br />नाहिन रामु राज के भूखे। धरम धुरीन बिषय रस रूखे।।<br />गुर गृह बसहुँ रामु तजि गेहू। नृप सन अस बरु दूसर लेहू।।<br />जौं नहिं लगिहहु कहें हमारे। नहिं लागिहि कछु हाथ तुम्हारे।।<br />जौं परिहास कीन्हि कछु होई। तौ कहि प्रगट जनावहु सोई।।<br />राम सरिस सुत कानन जोगू। काह कहिहि सुनि तुम्ह कहुँ लोगू।।<br />उठहु बेगि सोइ करहु उपाई। जेहि बिधि सोकु कलंकु नसाई।।<br />छं0-जेहि भाँति सोकु कलंकु जाइ उपाय करि कुल पालही।<br /> हठि फेरु रामहि जात बन जनि बात दूसरि चालही।।<br /> जिमि भानु बिनु दिनु प्रान बिनु तनु चंद बिनु जिमि जामिनी।<br /> तिमि अवध तुलसीदास प्रभु बिनु समुझि धौं जियँ भामिनी।।<br />सो0-सखिन्ह सिखावनु दीन्ह सुनत मधुर परिनाम हित।<br /> तेइँ कछु कान न कीन्ह कुटिल प्रबोधी कूबरी।।50।।<br /><br>
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