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अमरनाथ साहिर

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दिल की बज़्म-आराइयाँ थीं आरज़ू-ए-दिल के साथ॥
 
 
अज़ल से दिल है महवेनाज़ वक़्फ़े-ख़ुद-फ़रामोशी।
 
जो बेख़ुद हो वोह क्या जाने, वफ़ा क्या है, जफ़ा क्या है?
 
 
परदा पडा़ हुआ था गफ़लत का चश्मे-दिल पर।
 
आँखें खुलीं तो देखा आलम में तू-ही-तू है॥
 
 
जलव-ए-हक़ नज़र आता है सनम में ‘साहिर’।
 
है मेरे काबे की तामीर सनम-ख़ानों से॥
 
 
हुस्न में और इश्क़ में जब राब्ता क़ायम हुआ।
 
ग़म बना दिल के लिए और दिल बना मेरे लिए॥
 
 
वो भी आलम था कि तू-ही-था और कोई न था।
 
अब यह कैफ़ियत है मैं-ही-मैं का है सौदा मुझे॥
 
 
हुस्न को इश्क़ से बेपरदा बना देते हैं वोह।
 
वोह जो पिन्दारे-खुदी दिल से मिटा देते हैं॥
 
 
खाली हाथ आएंगे और जाएंगे भी खाली हाथ।
 
मुफ़्त की सर है, क्या लेते हैं, क्या देते हैं।
 
 
ज़िंदगी में है मौत का नक्शा।
 
जिसको हम इन्तज़ार कहते हैं॥
 
 
दीदारे-शीशजहत<ref>विश्व के दर्शन</ref> है कोई दीदावर तो हो।
 
जलवा कहाँ नहीं, कोई अहले-नज़र तो हो॥
 
 
हरम है मोमिनों का, बुतपरस्तों का सनमख़ाना।
 
ख़ुदा-साज़ इक इमारत है मेरे पहलू में जो दिल है॥
 
 
चले जो होश से हम बेखुदी की मंज़िल में।
 
मिला वो ज़ौके-नज़र, पर उधर न देख सके॥
 
 
हम है और बेखुदी-ओ-बेख़बरी।
 
अब न रिन्दी न पारसाई है॥
 
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