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एक मैली दुकान तीरः-ओ-तार
इक चिराग़ और एक दोशीज़ा<ref>किशोरी</ref>वोह बुझी-सी है वह उदास -सा है
दोनों जाड़ों की लम्बी रातों में
तीरगी और हवा से लड़ते हैं
और हवाओं के हाथ में गुस्ताख़
तोड़े लेते हैं नन्हे शो’ले को
भींचे ली भींच लेते हैं मैले आँचल को
लड़की रह-रह के जिस्म ढाँपती है
शो’ला रह-रह के थरथराता है
नंगी बुढ़ी बूढ़ी ज़मीन काँपती है
तीरगी अब सियह समन्दर है
या तो दोनों चिराग़ गुल होंगे
या करेंगे वो शो’ला-अफ़शानी<ref>अंगारे बरसाना </ref>
फूँक डालेंगे तीरगी की मता’मता<ref>अन्धकार की सत्ता[सम्पत्ति]</ref>
पर मुझे एतिमाद <ref>भरोसा</ref> है इन पर
गो ग़रीब और बेज़बान-से हैं
दोनों हैं आग दोनों हैं शो’ला
दोनों बिजली के ख़ानदान से हैं
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</poem>
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