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ज्योति के पत्र पर लिखा<br>
अमर रह गया राम-रावण का अपराजेय समर।<br>
आज का तीक्ष्ण शरविधृतक्षिप्रकरशर-विधृत-क्षिप्रकर, वेगप्रखरवेग-प्रखर,<br>शतशेल सम्वरणशीलशतशेलसम्वरणशील, नील नभगर्जित नभगर्ज्जित-स्वर,<br>प्रतिपल - परिवर्तित - व्यूह<br>- भेद कौशल समूह<br>राक्षस - विरुद्ध प्रत्यूह,<br>-क्रुद्ध - कपि विषम हूह,<br>विच्छुरित वह्नि - राजीवनयन - हतलक्ष्य - बाण,<br>लोहित लोचन लोहितलोचन - रावण मदमोचन - महीयान,<br>राघव -लाघव - रावण वारणगत - वारण - गत - युग्म - प्रहर,<br>उद्धत - लंकापति मर्दित - कपि दलबल - दल-बल - विस्तर,<br>अनिमेष - राम -विश्वजिद्दिव्य शरभंग - शर - भंग - भाव,<br>विद्धांगबद्ध विद्धांग-बद्ध - कोदण्ड - मुष्टि - खर - रुधिर - स्राव,<br>रावण - प्रहार - दुर्वार - विकल वानर दलबल- दल - बल,<br>मुर्छित - सुग्रीवांगद - भीषण - गवाक्ष - गय - नल,<br>वारित - सौमित्र - भल्लपति - अगणित - मल्ल - रोध,<br>गर्जित गर्ज्जित - प्रलयाब्धि - क्षुब्ध हनुमत् - केवल प्रबोध,<br>उद्गीरित - वह्नि - भीम - पर्वत - कपि चतुःप्रहर,<br>जानकी - भीरू - उर - आशा भर, - रावण सम्वर।<br>लौटे युग दल।<br> लौटे युग - दल - राक्षस - पदतल पृथ्वी टलमल,<br>बिंध महोल्लास से बार - बार आकाश विकल।<br>वानर वाहिनी खिन्न, लख निज - पति - चरणचिह्न<br>
चल रही शिविर की ओर स्थविरदल ज्यों विभिन्न।<br><br>
प्रशमित हैं वातावरण, नमित - मुख सान्ध्य कमल<br>लक्ष्मण चिन्तापल पीछे वानर वीर - सकल<br>रघुनायक आगे अवनी पर नवनीतचरणनवनीत-चरण,<br>श्लध धनुगुण श्लथ धनु-गुण है, कटिबन्ध त्रस्त तूणीरधरणस्रस्त तूणीर-धरण,<br>दृढ़ जटा - मुकुट हो विपर्यस्त प्रतिलट से खुल<br>
फैला पृष्ठ पर, बाहुओं पर, वृक्ष पर, विपुल<br>
उतरा ज्यों दुर्गम पर्वत पर नैशान्धकार<br>
चमकतीं दूर ताराएं ज्यों हों कहीं पार।<br><br>
आये सब शिविर<br>,सानु पर पर्वत के, मन्थर<br>
सुग्रीव, विभीषण, जाम्बवान आदिक वानर<br>
सेनापति दल - विशेष के, अंगद, हनुमान<br>
नल नील गवाक्ष, प्रात के रण का समाधान<br>
करने के लिए, फेर वानर दल आश्रय स्थल।<br><br>
बैठे रघुकुलमणि रघु-कुल-मणि श्वेत शिला पर, निर्मल जल<br>ले आये कर - पद क्षालनार्थ पटु हनुमान<br>अन्य वीर सर के गये तीर सन्ध्या - विधान<br>वन्दना ईश की करने को , लौटे सत्वर,<br>
सब घेर राम को बैठे आज्ञा को तत्पर,<br>
पीछे लक्ष्मण, सामने विभीषण , भल्ल्धीर,<br>सुग्रीव, प्रान्त पर पदपद्य पाद-पद्म के महावीर,<br>यथुपति यूथपति अन्य जो, यथास्थान हो निर्निमेष<br>देखते राम को जितसरोजमुख जित-सरोज-मुख-श्याम -देश।<br><br>
है अमानिशा, उगलता गगन घन अन्धकार,<br>
अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल,<br>
भूधर ज्यों ध्यानमग्न, केवल जलती मशाल।<br>
स्थिर राघवेन्द राघवेन्द्र को हिला रहा फिर - फिर संशय<br>रह - रह उठता जग जीवन में रावण -जय -भय,<br>जो नहीं हुआ आज तक हृदय रिपुदम्य रिपु-दम्य-श्रान्त,<br>
एक भी, अयुत-लक्ष में रहा जो दुराक्रान्त,<br>
कल लड़ने को हो रहा विकल वह बार - बार,<br>असमर्थ मानता मन उद्यत हो हार -हार।<br><br>
ऐसे क्षण अन्धकार घन में जैसे विद्युत<br>
फड़का पर नभ को उड़े सकल ज्यों देवदूत,<br>
देखते राम, जल रहे शलभ ज्यों रजनीचर,<br>
ताड़का, सुबाहु , बिराध, शिरस्त्रय, दूषण, खर,<br><br>
फिर देखी भीम मूर्ति आज रण देखी जो<br>
बैठे मारुति देखते रामचरणारविन्द,<br>
युग 'अस्ति -नास्ति' के एक रूप, गुणगण अनिन्द्य,<br>साधना मध्य भी साम्य वामा वाम कर दक्षिणपद,<br>
दक्षिण करतल पर वाम चरण, कपिवर, गद् गद्<br>
पा सत्य सच्चिदानन्द रूप, विश्राम धाम,<br>
जलराशि विपुल मथ मिला अनिल में महाराव<br>
वज्रांग तेजघन बना पवन को, महाकाश<br>
पहुँचा, एकादश रूद रूद्र क्षुब्ध कर अट्टहास।<br>
रावण महिमा श्यामा विभावरी, अन्धकार,<br>
यह रूद्र राम पूजन प्रताप तेजः प्रसार,<br>
इस ओर शक्ति शिव की जो दशस्कन्धपूजित,<br>
उस ओर रूद्रवन्दन जो रघुनन्दन कूजित,<br>
करने को ग्रस्त समस्त व्योम कपि बढ़ा अटल,<br>
जिसने हित कहते किया मुझे पादप्रहार,<br>
बैठा उपवन में देगा दुख सीता को फिर,<br>
कहता रण की जयकथा पारिषददल जय-कथा पारिषद-दल से घिर,<br>सुनता वसन्त में उपवन में कलकूजित्पिककल-कूजित पिक<br>मैं बना किन्तु लंकापति, धिक राघव, धिक धिकधिक्-धिक्?<br><br>
सब सभा रही निस्तब्ध<br>
जैसे ओजस्वी शब्दों का जो था प्रभाव<br>
उससे न इन्हें कुछ चाव, न कोई दुराव,<br>
ज्यों हों वे शब्दमात्र मैत्री की समानुरक्तिसमनुरक्ति,<br>
पर जहाँ गहन भाव के ग्रहण की नहीं शक्ति।<br><br>
कुछ क्षण तक रहकर मौन सहज निज कोमल स्वर,<br>
बोले रघुमणि -"मित्रवर, विजय होगी न, समर,<br>यह नहीं रहा नर -वानर का राक्षस से रण,<br>उतरी उतरीं पा महाशक्ति रावण से आमन्त्रण,<br>
अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति।" कहते छल छल<br>
हो गये नयन, कुछ बूँद पुनः ढलके दृगजल,<br>
रुक गया कण्ठ, चमक चमका लक्ष्मण तेजः प्रचण्ड<br>
धँस गया धरा में कपि गह युगपद, मसक दण्ड<br>
स्थिर जाम्बवान, समझते हुए ज्यों सकल भाव,<br>
निश्चित सा करते हुए विभीषण कार्यक्रम<br>
मौन में रहा यों स्पन्दित वातावरण विषम।<br>
निज सहज रूप में संयत हो जानकीप्राणजानकी-प्राण<br>बोले -"आया न समझ में यह दैवी विधान।<br>
रावण, अधर्मरत भी, अपना, मैं हुआ अपर,<br>
यह रहा, शक्ति का खेल समर, शंकर, शंकर!<br>
करता मैं योजित बार -बार शरनिकर शर-निकर निशित,<br>
हो सकती जिनसे यह संसृति सम्पूर्ण विजित,<br>
जो तेजः पुंज, सृष्टि की रक्षा का विचार,<br>
हैं जिनमें जिसमें निहित पतन घातक संस्कृति अपार।<br><br>
शत शुद्धिबोध-शुद्धि-बोध, सूक्ष्मातिसूक्ष्म मन का विवेक,<br>
जिनमें है क्षात्रधर्म का धृत पूर्णाभिषेक,<br>
जो हुए प्रजापतियों से संयम से रक्षित,<br>
वे शर हो गये आज रण में श्रीहत, श्रीहत खण्डित!<br>देखा है हैं महाशक्ति रावण को लिये अंक,<br>
लांछन को ले जैसे शशांक नभ में अशंक,<br>
हत मन्त्रपूत शर सम्वृत करतीं बार -बार,<br>
निष्फल होते लक्ष्य पर क्षिप्र वार पर वार।<br>
विचलित लख कपिदल क्रुद्ध, युद्ध को मैं ज्यों ज्यों,<br>
झक-झक झलकती वह्नि वामा के दृग त्यों -त्यों,<br>
पश्चात्, देखने लगीं मुझे बँध गये हस्त,<br>
फिर खिंचा न धनु, मुक्त ज्यों बँधा मैं, हुआ त्रस्त!"<br><br>
कह हुए भानुकुलभूष्ण वहाँ मौन क्षण भर,<br>
बोले विश्वस्त कण्ठ से जाम्बवान, -"रघुवर,<br>
विचलित होने का नहीं देखता मैं कारण,<br>
हे पुरुषसिंह, तुम भी यह शक्ति करो धारण,<br>
छोड़ दो समर जब तक न सिद्धि हो, रघुनन्दन!<br>
तब तक लक्ष्मण हैं महावाहिनी के नायक,<br>
मध्य माग भाग में अंगद, दक्षिण-श्वेत सहायक।<br>
मैं, भल्ल सैन्य, हैं वाम पार्श्व में हनुमान,<br>
नल, नील और छोटे कपिगण, उनके प्रधान।<br>
खिल गयी सभा। "उत्तम निश्चय यह, भल्लनाथ!"<br>
कह दिया ऋक्ष वृद्ध को मान राम ने झुका माथ।<br>
हो गये ध्यान में लीन पुनः करते विचार,<br>
देखते सकल, -तन पुलकित होता बार -बार।<br>
कुछ समय अनन्तर इन्दीवर निन्दित लोचन<br>
खुल गये, रहा निष्पलक भाव में मज्जित मन,<br>
"मातः, दशभुजा, विश्वज्योति; मैं हूँ आश्रित;<br>
हो विद्ध शक्ति से है खल महिषासुर मर्दित;<br>
जनरंजन चरणकमल -चरण-कमल-तल, धन्य सिंह गर्जित!<br>
यह, यह मेरा प्रतीक मातः समझा इंगित,<br>
मैं सिंह, इसी भाव से करूँगा अभिनन्दित।"<br><br>
कुछ समय तक स्तब्ध हो रहे राम छवि में निमग्न,<br>
फिर खोले पलक कमल ज्योतिर्दल ध्यानलग्न।ध्यान-लग्न।<br>
हैं देख रहे मन्त्री, सेनापति, वीरासन<br>
बैठे उमड़ते हुए, राघव का स्मित आनन।<br>
बोले भावस्थ चन्द्रमुख निन्दित रामचन्द्र,<br>
प्राणों में पावन कम्पन भर स्वर मेघमन्दमेघमन्द्र,<br>
"देखो, बन्धुवर, सामने स्थिर जो वह भूधर<br>
शिभित शोभित शत -हरित -गुल्म -तृण से श्यामल सुन्दर,<br>
पार्वती कल्पना हैं इसकी मकरन्द विन्दु,<br>
गरजता चरण प्रान्त पर सिंह वह, नहीं सिन्धु।<br><br>
दशदिक समस्त हैं हस्त, और देखो ऊपर,<br>
अम्बर में हुए दिगम्बर अर्चित शशि -शेखर,<br>
लख महाभाव मंगल पदतल धँस रहा गर्व,<br>
मानव के मन का असुर मन्द हो रहा खर्व।"<br>
हैं नहीं शरासन आज हस्त तूणीर स्कन्ध<br>
वह नहीं सोहता निबिड़ निविड़-जटा -दृढ़ मुकुटबन्ध-मुकुट-बन्ध,<br>सुन पड़ता सिंहनाद ,-रण कोलाहल अपार,<br>
उमड़ता नहीं मन, स्तब्ध सुधी हैं ध्यान धार,<br>
पूजोपरान्त जपते दुर्गा, दशभुजा नाम,<br>
मन करते हुए मनन नामों के गुणग्राम,<br>
बीता वह दिवस, हुआ मन स्थिर इष्ट के चरण<br>
गहन -से -गहनतर होने लगा समाराधन।<br><br>
क्रम -क्रम से हुए पार राघव के पंच दिवस,<br>
चक्र से चक्र मन बढ़ता गया ऊर्ध्व निरलस,<br>
कर -जप पूरा कर एक चढाते इन्दीवर,<br>
निज पुरश्चरण इस भाँति रहे हैं पूरा कर।<br>
चढ़ षष्ठ दिवस आज्ञा पर हुआ समाहित -मन,<br>प्रतिजप से खिंच -खिंच होने लगा महाकर्षण,<br>संचित त्रिकुटी पर ध्यान द्विदल देवीपद देवी-पद पर,<br>जप के स्वर लगा काँपने थर -थर -थर अम्बर।<br>
दो दिन निःस्पन्द एक आसन पर रहे राम,<br>
अर्पित करते इन्दीवर जपते हुए नाम।<br>
आठवाँ दिवस मन ध्यान्युक्त ध्यान-युक्त चढ़ता ऊपर<br>कर गया अतिक्रम ब्रह्मा -हरि -शंकर का स्तर,<br>
हो गया विजित ब्रह्माण्ड पूर्ण, देवता स्तब्ध,<br>
हो गये दग्ध जीवन के तप के समारब्ध।<br>
प्रायः करने हुआ दुर्ग जो सहस्रार,<br>
द्विप्रहर, रात्रि, साकार हुई दुर्गा छिपकर<br>
हँस उठा ले गई पुजा पूजा का प्रिय इन्दीवर।<br><br>
यह अन्तिम जप, ध्यान में देखते चरण युगल<br>
देखा, वहाँ रिक्त स्थान, यह जप का पूर्ण समय,<br>
आसन छोड़ना असिद्धि, भर गये नयनद्वय,<br>
"धिक् जीवन को जो पाता ही आया है विरोध,<br>
धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध<br>
जानकी! हाय उद्धार प्रिया का हो न सका,<br>
वह एक और मन रहा राम का जो न थका।थका,<br>
जो नहीं जानता दैन्य, नहीं जानता विनय,<br>
कर गया भेद वह मायावरण प्राप्त कर जय।जय,<br><br> 
बुद्धि के दुर्ग पहुँचा विद्युतगति हतचेतन<br>
राम में जगी स्मृति हुए सजग पा भाव प्रमन।<br><br> "यह है उपाय", कह उठे राम ज्यों मन्द्रित घन-<br>"कहती थीं माता मुझको मुझे सदा राजीवनयन।<br>
दो नील कमल हैं शेष अभी, यह पुरश्चरण<br>
पूरा करता हूँ देकर मात मातः एक नयन।"<br><br> 
कहकर देखा तूणीर ब्रह्मशर रहा झलक,<br>
ले लिया हस्त , लक -लक करता वह महाफलक।<br>
ले अस्त्र वाम पर, दक्षिण कर दक्षिण लोचन<br>
ले अर्पित करने को उद्यत हो गये सुमन<br>
जिस क्षण बँध गया बेधने को दृग दृढ़ निश्चय,<br>
काँपा ब्रह्माण्ड, हुआ देवी का त्वरित उदय।उदय-<br><br> 
"साधु, साधु, साधक धीर, धर्म-धन धन्य राम!"<br>
कह, लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम।<br>
देखा राम ने, सामने श्री दुर्गा, भास्वर<br>
वामपद असुर -स्कन्ध पर, रहा दक्षिण हरि पर।<br>
ज्योतिर्मय रूप, हस्त दश विविध अस्त्र सज्जित,<br>
मन्द स्मित मुख, लख हुई विश्व की श्री लज्जित।<br>
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