भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
कुछ तू भी पसीज सोच में डूब।
मैं अपनी गई हूँ चौकड़ी भूल।
मत मुझको सुंघा यह डहे-डहे फूल।
फूलों को उठा के यहाँ से ले जा।
सौ टुकड़े हुए मेरा कलेजा।
बिखरे जी को न कर इकट्ठा।
एक घास का ला के रख दे गट्टा।
हरयाली उसी की देख लूँ मैं।
कुछ और तो तुझको क्या कहूँ मैं?
इन आँखों में है भड़क हिरन की।
पलकें हुईं जैसे घास बन की।
जब देखिए डब-डबा हरी हैं।
ओसें आँसू की छा रही हैं।
यह बात जो जी में गड़ गई है।
एक ओस सी मुझ पै पड़ गई है।
</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
53,320
edits