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Kavita Kosh से
ताप जीवन श्वास वाली,
मृत्यु हिम उच्छवास वाली।
क्या जला, जलकर बुझा, ठंढ़ा ठंढा हुआ फिर प्रकृति का उर!
वायु बहती शीत-निष्ठुर!
थी न सब दिन त्रासदाता
वायु ऐसी--यह बताता
एक जोड़ा पेंडुकी का ड़ाल डाल पर बैठा सिकुड़-जुड़!
वायु बहती शीत-निष्ठुर!
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