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किरनों की शाला बन्द हो गई चुप-चपु
 
अपने घर को चल पड़ी सहस्त्रों हँस-हँस
 
उ ण्ड खेलतीं घुल-मिल होड़ा-होड़ी
 
रोके रंगों वाली छबियाँ? किसका बस!
 
 
ये नटखट फिर से सुबह-सुबह आवेंगी
 
पंखनियाँ स्वागत-गीत कि जब गावेंगी।
 
दूबों के आँसू टपक उठेंगे ऐसे
 
हों हर्ष वायु से बेक़ाबू- से जैसे।
 
 
कलियाँ हँस देंगी
 
फूलों के स्वर होगा
 
आगन्तुक-दल की आँखों का घर होगा,
 
ऊँचे उठना कलिकाओं का वर होगा
 
नीचे गिरना फूलों का ईश्वर होगा।
 
शाला चमकेगी फिर ब्रह्माण्ड-भवन की
 
खेलेंगी आँख-मिचौनी नटखट मन की।
 
 
इनके रूपों में नया रंग-सा होगा
 
सोई दुनिया का स्वपन दंग-सा होगा
 
यह सन्ध्या है, पक्षी चुप्पी साधेंगे
 
किरणों की शाला बन्द हो गई- चुप-चुप।
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