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{{KKRachna
|रचनाकार=सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
|संग्रह=अनामिका / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"o
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देखता हूँ,
शय्या-शिरोभाग में खड़े तुम चुपचाप,
 
छलछल आँखें,
हेरते हो मेरे मुख की ओर एक-टक।
बदल जाता है भाव,
पैरों पड़ता हूँ,
किन्तु क्षमा नहीं मांगता;
नहीं करते हो रोष।
ऐसी प्रगल्भता
और कोई कैसे कहो सहन कर सकता है?
तुम मेरे प्रभु हो,
प्राण-सखा मेरे तुम;
कभी देखता हूँ--
"तुम मैं हो, मैं तुम बना,
वाणी तुम, वीणापाणि मेरे कण्ठ में प्रभो,
ऊर्मि से तुम्हारी वह जाते हैं नर-नारी।"
सिन्धुनाद हुंकार,
सूर्य-चन्द में वचन,
मन्द-मन्द पवन तुम्हारा आलाप है;
सत्य है यह सब कथा,
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