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[[Category:ग़ज़ल]]
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ज़ीस्त आज़ार हुई जाती है ।
साँस तलवार हुई जाती है |
ज़ीस्त आज़ार हुई जाती जिस्म बेकार हुआ जाता है ।<br>,साँस तलवार रूह बेदार हुई जाती है |<br><br>
जिस्म बेकार हुआ जाता हैकान से दिल में उतरती नहीं बात,<br>रूह बेदार और गुफ़्तार हुई जाती है |<br><br>
कान ढल के निकली है हक़ीक़त जब से दिल में उतरती नहीं बात,<br>और गुफ़्तार कुछ पुर-असरार हुई जाती है |<br><br>
ढल के निकली है हक़ीक़त जब सेअब तो हर ज़ख़्म की मुँहबन्द कली,<br>कुछ पुरलब-ए-असरार इज़हार हुई जाती है |<br><br>
अब तो हर ज़ख़्म की मुँहबन्द कली,<br>लब-ए-इज़हार हुई जाती है |<br><br> फूल ही फूल हैं हर सिम्त 'नदीम',<br>राह दुश्वार हुई जाती है |<br><br/poem>
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