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{{KKRachna
|रचनाकार=रामधारी सिंह "दिनकर"
|संग्रह=रसवन्ती / रामधारी सिंह "दिनकर"
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<poem>
अरी ओ रसवन्ती सुकुमार !
अचानक ढुलक पड़ा दृग-नीर।
तॄणों में कभी खोजता फिरा <br> विकल मानवता का कल्याण, <br> बैठ खण्डहर मे करता रहा <br> कभी निशि-भर अतीत का ध्यान.<br><br>
श्रवण कर चलदल-सा उर फटा<br>दलित देशों का हाहाकार,<br>देखकर सिरपर मारा हाथ <br> सभ्यता का जलता श्रृंगार. <br><br/poem>