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[[कविता बनाम दूसरे काम]]{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=कुमार सुरेश}}{{KKCatKavita‎}}<poem>तीसरे और चौथे पहर का संधिकाल सफारी सफ़ारी के नीचे स्लीपर
काँधे पर झोला
दद्दा अजीब लगते हैं
जो मिले पाठकों या संपादकों से
कविता -कर्म की चर्चा का बना उपक्रम
बताने लगे, किस पत्रिका में कौन हैं संपादक
किस-किस से उनका परिचय
सीनियर कवि के नाते देने लगे सलाह
उस पत्रिका को भेजो वहां फलां वहाँ फलाँ है अलां अलाँ को फ़ोन करो, बात बन जाती है
पूरे वार्तालाप में नहीं बताते गुर
अच्छी कविता कैसे लिखी जाए
कहा मैंने
जिंदगी ज़िंदगी वैसे ही नीचता से लथपथ है
न जाने क्या-क्या समझौते और पतन
कविता चुनी ही इसलिए है हमने
कि इसमें झलक है स्वतंत्रता कि की
जहाँ समझौता और बंधन नहीं
कविता कर्म करते समय
कविता को भी यदि
जुगाड़ और अवसर के कीचड से लपेटना है
तो बिना कविता के ही जिंदगी खूब ज़िंदगी ख़ूब नरक है कुछ चीजें चीज़ें पवित्र हैं जैसे
हवा में नाचता खिला फूल
छोटे बच्चे की आँखें
दोस्तों की बेतकल्लुफ हंसी बेतकल्लुफ़ हँसी
और कविता
इन चीजों चीज़ों को सहेजना है ऐसे
जैसे बच्चे सहेजकर रखते हैं
विद्या की पत्ती किताब के बीच
हम सहेजते हैं डबडबायी डबडबाई आँख
रुमाल की कोर के बीच
मोहल्ला गणेश उत्सव समिति का बन जाना अध्यक्ष
या फिर आप ही सोचें वह कुछ
कविता को छोड़कर. छोड़कर।
</poem>
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