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बनी मतवाली माया में।
 
 
प्रत्येक नाश-विश्लेषण भी
 
संश्लिष्ट हुए, बन सृष्टि रही,
 
ऋतुपति के घर कुसुमोत्सव था-
 
मादक मरंद की वृष्टि रही।
 
 
भुज-लता पडी सरिताओं की
 
शैलों के ले सनाथ हुए,
 
जलनिधि का अंचल व्यजन
 
बना धरणी का दो-दो साथ हुए।
 
 
कोरक अंकुर-सा जन्म रहा
 
हम दोनों साथी झूल चले,
 
उस नवल सर्ग के कानन में
 
मृदु मलयानिल के फूल चले,
 
 
हम भूख-प्यास से जाग उठे
 
आकांक्षा-तृप्ति समन्वय में,
 
रति-काम बने उस रचना में
 
जो रही नित्य-यौवन वय में?'
 
 
"सुरबालाओं को सखी रही
 
उनकी हृत्त्री की लय थी
 
रति, उनके मन को सुलझाती
 
वह राग-भरी थी, मधुमय थी।
 
 
मैं तृष्णा था विकसित करता,
 
वह तृप्ति दिखती थी उनकी,
 
आनन्द-समन्वय होता था
 
हम ले चलते पथ पर उनको।
 
 
वे अमर रहे न विनोद रहा,
 
चेतना रही, अनंग हुआ,
 
हूँ भटक रहा अस्तित्व लिये
 
संचित का सरल प्रंसग हुआ।"
 
 
"यह नीड मनोहर कृतियों का
 
यह विश्व कर्म रंगस्थल है,
 
है परंपरा लग रही यहाँ
 
ठहरा जिसमें जितना बल है।
 
 
वे कितने ऐसे होते हैं
 
जो केवल साधन बनते हैं,
 
उषा की सजल गुलाली
 
जो घुलती है नीले अंबर में
 
 
वह क्या? क्या तुम देख रहे
 
वर्णों के मेघाडंबर में?
 
अंतर है दिन औ 'रजनी का यह
 
साधक-कर्म बिखरता है,
 
 
माया के नीले अंचल में
 
आलोक बिदु-सा झरता है।"
 
"आरंभिक वात्या-उद्गम मैं
 
अब प्रगति बन रहा संसृति का,
 
 
मानव की शीतल छाया में
 
ऋणशोध करूँगा निज कृति का।
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