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सोज़े-ए-निहाँ / कैफ़ी आज़मी

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इक यही सोज़े-ए-निहाँ कुल मिरा मेरा सरमाया है !दोस्तो ! , मैं किसे यह सोज़-ए-निहाँ नज़्र करूँ ? !...किसको कोई क़ातिल सरे-मक़्तल नज़र आता ही नहींकिस को दिल नज़्र करूँ और किसे जाँ नज़्र करूँ ! ...तुम भी महबूब मेरे, तुम भी हो दिलदार मेरेआशना मुझसे मगर तुम भी नहीं, तुम भी नहींखत्म है तुम पे मसीहानफ़सी, चारागरीमहरमे-दर्दे-जिगर, तुम भी नहीं, तुम भी नहींअपनी लाश आप उठाना कोई आसान नहीं !दस्तो-बाज़ू मेरे नाकारा हुए जाते हैं !जिनसे हर दौर में चमकी है तुम्हारी देहलीज़,दहलीज़आज सिज्दे सज्दे वही आवारा हुए जाते हैं !दूर मंज़िल थी, मगर ऐसी भी कुछ दूर न थीले के फिरती रही रस्ते ही में वहशत मुझकोएक ज़ख़्म ऐसा ना खाया कि बहार आ जातीदार तक ले के गया शौक़े-शहादत मुझको
राह में टूट गये पाँव तो मालूम हुआ
जुज़ मिटे मेरे और मेरा रहनुमा कोई नहीं !एक के बाद ख़ुदा एक चला आता था :कह दिया अक़्ल ने तंग आके-ख़ुदा कोई नहीं !
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