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झलके कब से पर पडे न झर,
गंभी गंभीर मलिन छाया भू पर,
सरिता तट तरु का क्षितिज प्रांत,
सत्ता का स्पंदन चला डोल,
आवरण पटल की ग्रंथि खोल,
तम जलनिधि बन मधुमंथन,
ज्योत्स्ना सरिता का आलिंगन,
वह रजत गौर, उज्जवल जीवन,
आलोक पुरुष मंगल चेतन
केवल प्रकाश का था कलोल,
मधु किरणों की थी लहर लोल।
बन गया तमस था अलक जाल,
सर्वांग ज्योतिमय था विशाल,
अंतर्निनाद ध्वनि से पूरित,
थी शून्य-भेदिनी-सत्ता चित्त,
नटराज स्वयं थे नृत्य-निरत,
था अंतरिक्ष प्रहसित मुखरित,
स्वर लय होकर दे रहे ताल,
थे लुप्त हो रहे दिशाकाल।
लीला का स्पंदित आह्लाद,
वह प्रभा-पुंज चितिमय प्रसाद,
आनन्द पूर्ण तांडव सुंदर,
 
झरते थे उज्ज्वल श्रम सीकर,
 
 
बनते तारा, हिमकर, दिनकर
 
उड रहे धूलिकण-से भूधर,
 
संहार सृजन से युगल पाद-
 
गतिशील, अनाहत हुआ नाद।
 
 
बिखरे असंख्य ब्रह्मांड गोल,
 
युग ग्रहण कर रहे तोल,
 
विद्यत कटाक्ष चल गया जिधर,
 
कंपित संसृति बन रही उधर,
 
 
चेतन परमाणु अनंथ बिखर,
 
बनते विलीन होते क्षण भर
 
यह विश्व झुलता महा दोल,
 
परिवर्त्तन का पट रहा खोल।
 
 
उस शक्ति-शरीरी का प्रकाश,
 
सब शाप पाप का कर विनाश-
 
नर्त्तन में निरत, प्रकृति गल कर,
 
उस कांति सिंधु में घुल-मिलकर
 
 
अपना स्वरूप धरती सुंदर,
 
कमनीय बना था भीषणतर,
 
हीरक-गिरी पर विद्युत-विलास,
 
उल्लसित महा हिम धवल हास।
 
 
देखा मनु ने नर्त्तित नटेश,
 
हत चेत पुकार उठे विशेष-
 
"यह क्या श्रद्धे बस तू ले चल,
 
उन चरणों तक, दे निज संबल,
 
 
सब पाप पुण्य जिसमें जल-जल,
 
पावन बन जाते हैं निर्मल,
 
मिटतते असत्य-से ज्ञान-लेश,
 
समरस, अखंड, आनंद-वेश" ।
''''''''''-- Done By: Dr.Bhawna Kunwar''''''''''
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