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'''सवाल'''
 
अंतहीन वाकशून्यता के
अनुत्तरित दौर में
लुंज बने
काल-परिधि में बेवज़ह क़ैद काट रहे
बेशुमार गूंगे-बहरे सवाल हैं.
नपुंसक सवालों के बलबूते पर
उसके बांझपन में कुछ भी बो लो
वह अंकुरित हो
छायादार वट नहीं बन सकता.
इसीलिए, अब
असंख्य मृत-अर्धमृत सवाल
जो उनकी आँखों से
बिम्बित अपनी मनहूस छायाएं छायाएँ
नहीं उतार सकते
इस जमीन ज़मीन पर
और नहीं बन सकते
हथियारबंद दमदार सैनिक.
सवालों की बांझ कोख से
कि लोकतंत्र के रंडीखाने में
उनकी खूब छनने लगी है
कामातुर व्यवस्था के संग.
सवालों की ऊसर ज़मीन पर
सिर पर सवालों का आसमान ढोते
चतुर्दिक भनभनाते सवालों से
घिरे रहना ही हमारी नियति है.
दरअसल, आदमी
फ़िज़ूल-बेफिजूल बेफ़िजूल ज़रुरीजरूरी-गैरज़रूरी
सवालों का सबसे बड़ा कब्रिस्तान है
जिसमें जिंदे और अबोध सवाल
नवजात ही गाड गाड़ दिए जाते हैं
इसके पहले कि हम
सवालों के गर्द खाए दर्पण में
अपना स्वप्निल संसार जोफ जोड़ सकें,हंसतीहँसती-खेलती तुष्ट-संतुष्ट दुनिया टटोल सकें,
एक मायावी तंत्र
उन्हें पालित-पोषित कर
उनका गला घोंट
उनकी बेजुबान लाशें
हमारी गोद में पटक देता है.
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