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'''प्रेमचन्द'''
मुफ़लिसी <ref>दरिद्रता, निर्धनता, कंगाली</ref> थी तो उसमें भी एक शान थी
कुछ न था, कुछ न होने पे भी आन थी
राह में गिरते-पड़ते सँभलते हुए
साम्राजी <ref>साम्राज़्यवादी अंग्रेज़ों से</ref> से तेवर बदलते हुए
आ गए ज़िन्दगी के नए मोड़ पर
प्रेम रस, सूखे खेतों पे बरसा गए
अब वो जनता की सम्पत हैं, धनपत <ref>प्रेमचन्द का असली नाम धनपत राय था</ref> नहीं
सिर्फ़ दो-चार के घर की दौलत नहीं
प्रेम पे प्रेम का अर्थ समझा दिया
फ़र्द <ref>एकाकी, अकेला शख़्स</ref> था, फ़र्द से कारवाँ बन गया
एक था, एक से इक जहाँ बन गया
मरने वाले के जीने का अंदाज़ देख
देख काशी की मिट्टी का ऐज़ाज़ एज़ाज़<ref>चमत्कार, करामात</ref> देख ।
</poem>
<ref>माशूक</ref>
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