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"युग-नाद / हरिवंशराय बच्चन" के अवतरणों में अंतर

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सदियों के कटु अनुभव से
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आवाज़ एक
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आती व्‍याप दिशा-विदिशाओं में,
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नगरों, उपनगरों, गाँवों में,
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:::पराधीन सपनेहु सुख नाहीं।
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फिर-फिर निर्बल विद्रोह
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विफल हो जाते हैं,
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श्रृंखला खलों की नेक नही ढीली होती।
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परवशता की अंतिम सीमा पर
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असामर्थ्‍य भी सामर्थ्‍य जगा करता है एक
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टेक रखकर करने या मरने की।
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तब हार-जीत की फिक्र
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कहाँ रह जाती है,
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जब किसी, स्‍वप्‍न, आदर्श, लक्ष्‍य से
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प्रेरित होकर जाति
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दाँव पर निज सर्वस्‍व लगाती है।
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गाँधी की जिह्वा पर उस दिन
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बूढ़ा भारत,
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जैसे फिर से होकर जवान
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अब और न सहने का हठकर,
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सब धैर्य छोड़,
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युग-युग सोया पुरुषार्थ जगा,
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साहस बटोरकर बोला था-
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वह निर्भय, निश्‍चयपूर्ण शब्‍द
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सुनकर उसदिन
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परदेशी साशन डोला था-
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करो या मरो! मरो या करो।
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कुछ न गुज़रो, कुछ न गुज़रो।
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आज़ाद मुल्‍क,
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दोनों हाथों करके वसूल
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कुछ बड़ा शुल्‍क।
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क्‍या सर्व हानी आशंका से ही
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आधा त्‍याग
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नहीं गया?-
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जो अर्ध पराजय थी
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पनवाई गई बताकर पूर्ण जीत।
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धीरे-धीरे परिणाम स्‍पष्‍ट,
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टुकड़े-टुकड़े
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स्‍वाधीन देश का मोहभंग,
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सपना विनष्‍ट।
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अवसरवादी नेताओं की,
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संघर्षकाल में किए गए
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साधन के फल भोगने-सँजोने की वेला
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भूखी, नंगी जनता गरीब की अवहेला।
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वह दिन-दिन भारी ऋणग्रस्‍त,
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दुर्दिन, अकाल, मँहगाई से
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संत्रस्‍त, पस्‍त,
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अधिकारी, व्‍यापारी, बिचौलिए लोभी
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भ्रष्‍टाचार-मस्‍त,
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कर्तव्‍यविमूढ़,
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आशाविहीन,
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संपूर्ण आत्‍म-विश्‍वास-रिक्‍त,
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नवदृष्‍ट‍ि-रहित,
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उत्‍साह-क्षीण,
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सब विधि वंचित,
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कुंठा-कवलित भारत समस्‍त।
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:::वे 'अवाँ गार्द',
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:::अर्थात हमारे अग्रिम पंक्‍त‍ि
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सफ़र-मैना,
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जिनको कोई
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युग-नाद उठाना था
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ऊँचा कर
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कसकर मुट्ठी बँधा हाथ,
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टें-टें करते
 +
 
 +
वे चला रहे हैं वाद,
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:::वाद पर वाद,
 +
 
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:::वाद पर वाद!

08:36, 13 दिसम्बर 2010 का अवतरण


आर्य

तुंग-उतुंग पर्वतों को पद-मर्दित करते

करते पार तीव्र धारायों की बर्फानी औ' तूफानी नदियाँ,

और भेदते दुर्मग, दुर्गम गहन भयंकर अरण्‍यों को

आए उन पुरियों को जो थीं

समतल सुस्थित, सुपथ, सुरक्षित;

जिनके वासी पोले, पीले और पिलपिले,

सुख-परस्‍त, सुविधावादी थे;

और कह उठे,

नहीं मारे लिए श्रेय यह

रहे हमारी यही प्रार्थना-

बलमसि बलं मयि धेहि।
वीर्यमसि वीर्यं मयि धेहि।


दिवा-निशा का चक्र

अनवरत चलता जाता;

स्‍वयं समय ही नहीं बदलता,

सबको साथ बदलता जाता।

वही आर्य जो किसी समय

दुर्लंघ्‍य पहाड़ों,

दुस्‍तर नद,

दुभेद्य वनों को

कटती प्रतिमाओं की आवाज़

बने चुनौती फिरते थे,

अब नगर-निवासी थे

संभ्रांत, शांत-वैभव-प्रिय, निष्‍प्रभ, निर्बल,

औ' करती आगाह एक आवाज़ उठी थी-

नायमात्‍मा बलहीनेन लभ्‍य:।
नायमात्‍मा बलहीनेन लभ्‍य:।


यही संपदा की प्रवृत्ति है

वह विभक्‍त हो जाती है

दनुजी-दैवी में-

रावण, राघव,

कंस, कृष्‍ण में;

औ' होता संघर्ष

महा दुर्द्धर्ष, महा दुर्दांत,

अंत में दैवी होती जयी,

दानवी विनत, वनिष्‍ट परास्‍त-

दिग्दिगंत से

ध्‍वनित प्रतिध्‍वनित होता है यह

काल सिद्ध विश्‍वास-

सत्‍यमेव जयते नानृतम्।
सत्‍यमेव जयते नानृतम्।


जग के जीवन में

ऐसा भी युग आता है

जब छाता ऐसा अंधकार

ऊँची से ऊँची भी मशाल

होती विलुप्‍त,

होते पथ के दीप सुप्‍त

सूझता हाथ को नहीं हाथ,

पाए फिर किसका कौन साथ।

एकाकी हो जो जहाँ

वहीं रुक जाता है,

सब पर शासन करता

केवल संनाटा है।

पर उसे भेदकर भी कौई स्‍वर उठता है,

फिर कौई उसे उठाता है,

दुहराता है,

फिर सभी उठाटे,

सब उसको दुहराते हैं,

अंधियाले का दु:सह आसन

डिग जाता है-

अप्‍प दीपो भव!
अप्‍प दीपो भव!


जैसे शरीर के

उसी तरह देश-जाती के अंग

संतुलित, संयोजित, संगठित,

स्‍वस्‍थ,

विपरीत,

रुग्‍ण।

दुर्भाग्‍य कि विघटित आज केंद्र,

कुछ नहीं आज किसी मुल संत्र से

नद्ध युक्‍त,

सब शक्‍त‍ि-परीक्षण को तत्‍पर;

परिणाम, प्रतिस्‍पर्धा,

तलवार तर्क,

पशुबल केवल जय का प्रमाण-

गो क्षत-विक्षत प्रत्‍येक पक्ष

औ'

िनैतिकता निरपेक्ष,

लोकमान्‍यता उपेक्षक

भनिति भदेस गुंजाती धरती-आसमान-

जिसकी लाठी उसकी भैंस।
जिसकी लाठी उसकी भैंस।


अब कुला विदेशी आक्रांता के लिए

देश, बाहर-भीतर,

खंडित-जर्जर।

पर्व-सागर का पार

लुटेरे-व्‍यापारी आते,

बनते हैं उसके अभिभावक शासक;

वह लुटता, शोषित होता है-

अपमानित, निंदित, अध:पतित

सदियों के कटु अनुभव से

मंथित अंतर से

आवाज़ एक

अवसाद भरी उठती है,

आती व्‍याप दिशा-विदिशाओं में,

नगरों, उपनगरों, गाँवों में,

जन-जन की मन:शिराओं में-

पराधीन सपनेहु सुख नाहीं।
पराधीन सपनेहु सुख नाहीं।


फिर-फिर निर्बल विद्रोह

विफल हो जाते हैं,

श्रृंखला खलों की नेक नही ढीली होती।

परवशता की अंतिम सीमा पर

असामर्थ्‍य भी सामर्थ्‍य जगा करता है एक

टेक रखकर करने या मरने की।

तब हार-जीत की फिक्र

कहाँ रह जाती है,

जब किसी, स्‍वप्‍न, आदर्श, लक्ष्‍य से

प्रेरित होकर जाति

दाँव पर निज सर्वस्‍व लगाती है।

गाँधी की जिह्वा पर उस दिन

बूढ़ा भारत,

जैसे फिर से होकर जवान

अब और न सहने का हठकर,

सब धैर्य छोड़,

युग-युग सोया पुरुषार्थ जगा,

साहस बटोरकर बोला था-

वह निर्भय, निश्‍चयपूर्ण शब्‍द

सुनकर उसदिन

परदेशी साशन डोला था-

करो या मरो! मरो या करो।

कुछ न गुज़रो, कुछ न गुज़रो।


आज़ाद मुल्‍क,

दोनों हाथों करके वसूल

कुछ बड़ा शुल्‍क।

क्‍या सर्व हानी आशंका से ही

आधा त्‍याग

नहीं गया?-


जो अर्ध पराजय थी

पनवाई गई बताकर पूर्ण जीत।

धीरे-धीरे परिणाम स्‍पष्‍ट,

टुकड़े-टुकड़े

स्‍वाधीन देश का मोहभंग,

सपना विनष्‍ट।

अवसरवादी नेताओं की,

संघर्षकाल में किए गए

साधन के फल भोगने-सँजोने की वेला

भूखी, नंगी जनता गरीब की अवहेला।

वह दिन-दिन भारी ऋणग्रस्‍त,

दुर्दिन, अकाल, मँहगाई से

संत्रस्‍त, पस्‍त,

अधिकारी, व्‍यापारी, बिचौलिए लोभी

भ्रष्‍टाचार-मस्‍त,

कर्तव्‍यविमूढ़,

आशाविहीन,

संपूर्ण आत्‍म-विश्‍वास-रिक्‍त,

नवदृष्‍ट‍ि-रहित,

उत्‍साह-क्षीण,

सब विधि वंचित,

कुंठा-कवलित भारत समस्‍त।

वे 'अवाँ गार्द',
अर्थात हमारे अग्रिम पंक्‍त‍ि

सफ़र-मैना,

जिनको कोई

युग-नाद उठाना था

ऊँचा कर

कसकर मुट्ठी बँधा हाथ,

टें-टें करते

वे चला रहे हैं वाद,

वाद पर वाद,
वाद पर वाद!