"आगगाड़ी और ज़मीन / कुसुमाग्रज" के अवतरणों में अंतर
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इस कविता में कवि की कल्पना और प्रेरणा में जबरदस्त होड़ लगी हुई है। समाज का पिछड़ा वर्ग युगों से अत्याचार सहता आ रहा है। इस कविता के माध्यम से कवि नवयुग का बिगुल बजा रहा है। तानाशाही, साम्राज्यवाद, पूंजीवाद, पुरोहिताई ने ग़रीबों का पूरा-पूरा शोषण किया है। लेकिन हर अत्याचार सहने की एक हद होती है। कुसुमाग्रज इस कविता के माध्यम से शोषकों को चेतावनी देते है, अगर यह पिछड़ा वर्ग संगठित होकर विद्रोह पर उतर आएगा तो तुम ध्वस्त हो जाओगे! इस कविता से क्राँति की प्रेरणा मिलती है! आगगाड़ी और ज़मीन शोषक और शोषितों के प्रतीक हैं!
मत रौंदो ..! मत रौंदो
चीख़ती ज़मीन थी!
आँखों में बिनती थी
पैरों पर लीन थी!!
बदन पर हो दौड़ती
मस्ती रफ़्तार में !
दब रही हूँ मैं नीचे
मिट रही हूँ कण-कण में !!
फ़ौलादी सीने में
बना दिए है सौ छर्रे !
फेंक रही हो ऊपर से
अनगिनत अंगारे !!
मत रौंदो मत रौंदो
चीख़ती ज़मीन थी!
मत जलाओ यूँ मुझे
मस्ती में झूमती !!
छोड़ कर फव्वारा
धुएँ का बादल में
आगगाड़ी गुर्राई
मस्ती थी हलचल में
कायर ! लाचार !! तुम !!!
चीख़ती रहो हरदम !
रहती क्यूँ इस जग में ,
गर नहीं है तुझ में दम ?
छाती पर रखूँगी
फ़ौलादी ये पग !
रौंदती मैं दौडूँगी
देखता रहे जग!!
फिरो फिरो चक्कों तुम
तेज़ रफ़्तार से
गरज़ते रहो हरदम
शोर और पुकार से
कर्कश थी सीटियाँ
गर्वोन्नत गाड़ी थी!
पेट में थे अंगारे
बेख़ौफ़ दौड़ी थी!!
धड़म-धड़ाम दौड़ती
पहाड़ चट्टान में
मीलों का फ़ासला
लाँघती थी वो पल में
सुन कर उस गाड़ी का
उद्दंड सा वचन !
गुस्से में उबलती
हिल रही थी अब ज़मीन !!
कायर ! लाचार !!मैं !
क्रोध और त्वेष था !
डर गए पहाड़ खाई
मही का आवेश था !!
बदले की आग का
नारा बुलंद था !
लंबा सा पुल पल में
खाई में ढेर था !!
पल में धुआँ-धुआँ
डरावना आक्रोश !
हिल रहा था जंगल
काँप उठा आकाश !
उलटी-पल्टी आगगाड़ी
गिर गई थी नीचे !
टुकड़ों में चूर-चूर
कुछ न बचा पीछे !!
मूल मराठी से अनुवाद : स्वाती ठकार