भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"मनुष्यता पहाड़ ही ढोती / लाला जगदलपुरी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=लाला जगदलपुरी |संग्रह=मिमियाती ज़िन्दगी दहाड़…) |
(कोई अंतर नहीं)
|
01:33, 21 दिसम्बर 2010 के समय का अवतरण
भोर के हंस चुग गए मोती,
बैठ कर तमिस्त्रा कहीं रोती ।
मौत बेवक़्त भला क्यों आती ?
ज़िन्दगी यदि ज़हर नहीं बोती ।
अस्मिता चिंतन की हरने को,
चिंता रात भर नहीं सोती ।
आदमी व्यक्त जब नहीं होता,
चेतना, चेतना नहीं होती ।
वक़्त बदले कि व्यवस्था बदले
मनुष्यता, पहाड़ ही ढोती ।