"मकड़ी और मक्खी / सुकुमार राय" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
{{KKGlobal}} | {{KKGlobal}} | ||
{{KKAnooditRachna | {{KKAnooditRachna | ||
− | |रचनाकार= | + | |रचनाकार=सुकुमार राय |
}} | }} | ||
[[Category:बांगला]] | [[Category:बांगला]] |
11:45, 25 दिसम्बर 2010 के समय का अवतरण
|
मकड़ी
धागा बुना अँगना में मैंने
जाल बुना कल रात मैंने
जाला झाड़ साफ़ किया है वास
आओ ना मक्खी मेरे घर
आराम मिलेगा बैठोगी जब
फ़र्श बिछाया देखो एकदम ख़ास
मक्खी
छोड़-छोड़ तू और मत कहना
बातों से तेरा मन गले ना
काम तुम्हारा क्या है मैं सब जानूँ
फँस गयी गर जाल के अन्दर
कभी सुना है कोई लौटा फिर
बाप रे ! वहाँ घुसने की बात ना मानूँ
मकड़ी
हवादार है जाल का झूला
चारों ओर प्रकाश है खुला
नींद आए खूब आँखे हो जाए बंद
आओ ना यहाँ हाथ पाँव धोकर
सो जाओ अपने पर मोड़कर
भीं-भीं-भीं उड़ना हो जाए बंद
मक्खी
ना चाहूँ मैं कोई झूला
बातों में गर स्वयं को भूला
जानूँ मैं जान का बड़ा ख़तरा
तेरे घर नींद गर आयी
नींद से ना कोई जग पाए
सर्वनाशा है वो नींद का कतरा
मकड़ी
वृथा तू क्यों विचारे इतना
इस कमरे में आकर देख ना
खान-पान से भरा है ये घरबार
आ फ़टाफ़ट डाल ले मुँह में
नाच-गाकर रह इस घर में
चिंता छोड़ रह जा बादशाह की तरह
मक्खी
लालच बुरी बला है जानूँ
लोभी नहीं हूँ और तुझे पहचानूँ
झूठा लालच मुझे मत दिखा रे
करें क्या वो खाना खाकर
उस भोजन को दूर से नमस्कार
मुझे यहाँ भोजन नही करना रे
मकड़ी
तेरा ये सुन्दर काला बदन
रूप तुम्हारा सुन्दर सघन
सर पर मुकुट आश्चर्य से निहारे
नैनों में हज़ार माणिक जले
इस इन्द्रधनुष पंख तले
छे पाँव से आओ ना धीरे-धीरे
मक्खी
मन मेरा नाचे स्फूर्ति से
सोचूँ जाऊँ एक बार धीरे से
गया-गया-गया मैं बाप रे! ये क्या पहेली
ओ भाई तुम मुझे माफ़ करना
जाल बुना तुमने मुझे नहीं फँसना
फँस जाऊँ गर काम न आए कोई सहेली
उपसंहार
दुष्टों की बातें होतीं चाशनी में डुबोई
आओ गर बातों में समझो जाल में फँसे
दशा तुम्हारा होगी ऐसा ही सुन लो
बातों में आकर ही लोग मर जाएँ
मकड़जीवी धीरे से समाए
दूर से करो प्रणाम और फिर हट लो
मूल बंगला से अनुवाद :