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"किताबें झाँकती हैं / गुलज़ार" के अवतरणों में अंतर

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अब अक्सर गुजर जाती है कम्पयुटर की परदों पर  
 
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बड़ी बैचेन रहती है किताबें  
 
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बिना पत्तों के सुखे टूंड लगते है वो अल्फाज
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कभी घुटनों का अपने रहल की सुरत बनाकर  
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नीम सज्दें में पढ़ा करते थे  
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किताबें मांगने, गिरने, उठाने के बहाने जो रिश्तें बना करते थे
 
किताबें मांगने, गिरने, उठाने के बहाने जो रिश्तें बना करते थे
अब उनका क्या होगा
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अब उनका क्या होगा...!!
  
 
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14:53, 25 दिसम्बर 2010 का अवतरण



किताबें झांकती है बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती है
महीनों अब मुलाकातें नही होती
जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थी
अब अक्सर गुजर जाती है कम्पयुटर की परदों पर
बड़ी बैचेन रहती है किताबें
उन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है

जो गज्लें वो सुनाती थी कि जिनके शल कभी गिरते नही थे
जो रिश्तें वो सुनाती थी वो सारे उधड़े उधड़े है
कोई सफ्हा पलटता हूं तो इक सिसकी निकलती है
कई लफ्जों के मानी गिर पड़े है
बिना पत्तों के सुखे टूंड लगते है वो सब अल्फाज
जिन पर अब कोई मानी उगते नही है

जबां पर जायका आता थो सफ्हें पलटने का
अब ऊंगली क्लिक करने से बस एक झपकी गुजरती है
बहोत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर
किताबों से जो जाती राब्ता था वो कट सा गया है

कभी सीनें पर रखकर लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे
कभी घुटनों को अपने रहल की सुरत बनाकर
नीम सज़दे में पढ़ा करते थे
छूते थे जंबीं से

वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइन्दा भी
मगर वो जो उन किताबों में मिला करते थे
सुखे फूल और महके हुए रूक्के
किताबें मांगने, गिरने, उठाने के बहाने जो रिश्तें बना करते थे
अब उनका क्या होगा...!!