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"पिताजी / उमेश चौहान" के अवतरणों में अंतर

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(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=उमेश चौहान }} {{KKCatKavita‎}} <poem> पिताजी अभी-अभी तो बैठे थे…)
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21:50, 2 जनवरी 2011 का अवतरण

पिताजी अभी-अभी तो
बैठे थे यहीं तख़त पर
प्रातःक्रियाओं से निवृत्त होकर
ध्यान-मुद्रा में
भूत और भविष्य दोनों को
वर्तमान में विलीन करते हुए
अपनी भौतिक अनुपस्थिति को सर्वथा झुठलाते हुए ।

पिताजी अक्सर चले आते हैं
स्मृतियों से अटे पड़े दरवाज़े पर
यूँ ही बरसों पुरानी बातें दुहराते हुए
कभी रंगों में सराबोर होली के फाग गाते
कभी दंड-बैठक पेल, मुद्गल भाँजते
कभी क्यारियों में फूलों की पौध लगाते
उन पर सुबह-शाम पानी दँवारते
कभी लाठी उठाकर बगीचे से आवारा जानवर भगाते
कभी हांथ में डंडा दबाकर खेतों के चक्कर लगाते
कभी गाँव के शैतान बच्चों को
अच्छी कबड्डी खेलने के गुर सिखाते
कभी देश-विदेश के अहं मसलों पर
बहस-महावसों के अंबार लगाते ।

वैसे तो काम-काज करना
नियति में नहीं था पिताजी की,
हमारे लिए सपनों जैसे ही थे वे दिन
जब अम्मा की बीमारी के चलते
पिताजी ही सुलगाते थे चूल्हे की लकड़ियाँ
उबालते थे दाल और सेंकते थे रोटियाँ
लाते थे लादकर क़स्बे से
हमारे लिये थैले में सब्जियाँ व घरेलू सामान
मँगाकर उस साप्ताहिक बाज़ार से
जहाँ आत्मसम्मानवश
क़दम भी नहीं रखा था उन्होंने कभी भी,
हमें दशहरे का रावण-दहन दिखाने के समय भी,

उनके थैले से निकली जलेबियाँ
खाकर ख़ुश हो जाने वाले हम
खेल-कूदकर थक जाने पर
अक्सर लेट जाते थे जाकर
चारपाई पर लेटे पिताजी की तोंद को तकिया बनाकर,

वक़्त के थपेड़ों में
हमारी यादों की खिड़की से
अभी भी फिसला नहीं है बचपन और
पिताजी की वह मोहक मुस्कान ।

मुझे हमेशा यही लगता है कि
पिताजी वहीं तो लेटे हैं
शाम के धुंधलके में
बिस्तर के कोने में दबे ट्रांजिस्टर पर
चल रहे कविता-पाठ का आस्वादन करते हुए
सो जाने की प्रतीक्षा में रजाई में पैर दुबकाते ।

पिताजी आज भी कभी-कभी ढूँढे मिल जाते हैं
उन फटी-पुरानी बहुमूल्य क़िताबों के बीच
जिन्हें उन्होंने पढ़-पढ़ कर
बरसों तक संभाल कर रखा था,

सनेही जी की 'सुकवि' के उन पुराने पन्नों के बीच
जिनमें छपे थे उनके समकालीन सरोकारों वाले छंद,
कविताई के शौक से भरे उन काग़ज़ों के बीच भी
जिन पर अक्सर अंकित करते रहते थे वे
अपनी अन्तरात्मा की भावनाएँ ।

पिताजी की इच्छा-शक्ति व लगन का
सतत साक्षी बना दरवाज़े का हैन्ड-पंप
जब भी चलाया जाता है हमारे द्वारा
'खट-खट-खट' कर पानी उड़ेलते हुए
वे आज भी नज़र आ जाते हैं अकेले
सामने खिली फूलों की क्यारियों में मँडराती
रंग-बिरंगी तितलियों के बीच
चबूतरे पर स्थापित शंकर जी की बटिया के ऊपर
अपनी सारी संचित तरलता अर्पित करते हुए।