"राखी / नज़ीर अकबराबादी" के अवतरणों में अंतर
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22:22, 4 जनवरी 2011 का अवतरण
चली आती है अब तो हर कहीं बाज़ार की राखी ।
सुनहरी, सब्ज़, रेशम, ज़र्द और गुलनार की राखी ।
बनी है गो कि नादिर ख़ूब हर सरदार की राखी ।
सलूनों में अजब रंगीं है उस दिलदार की राखी ।
न पहुँचे एक गुल को यार जिस गुलज़ार की राखी ।।1।।
अयाँ है अब तो राखी भी, चमन भी, गुल भी, शबनम भी ।
झमक जाता है मोती और झलक जाता है रेशम भी ।
तमाशा है अहा ! हा ! हा गनीमत है यह आलम भी ।
उठाना हाथ, प्यारे वाह वा टुक देख लें हम भी ।
तुम्हारी मोतियों की और ज़री के तार की राखी ।।2।।
मची है हर तरफ़ क्या क्या सलूनों की बहार अब तो ।
हर एक गुलरू फिरे है राखी बाँधे हाथ में ख़ुश हो ।
हवस जो दिल में गुज़रे है कहूँ क्या आह में तुमको ।
यही आता है जी में बनके बाम्हन आज तो यारो ।
मैं अपने हाथ से प्यारे के बाँधूँ प्यार की राखी ।।3।।
हुई है ज़ेबो ज़ीनत और ख़ूबाँ को तो राखी से ।
व लेकिन तुमसे अब जान और कुछ राखी के गुल फूले ।
दिवानी बुलबुलें हों देख गुल चुनने लगीं तिनके ।
तुम्हारे हाथ ने मेंहदी ने अंगश्तो ने नाख़ुन ने ।
गुलिस्ताँ की, चमन की, बाग़ की गुलज़ार की राखी ।।4।।
अदा से हाथ उठने में गुले राखी जो हिलते हैं ।
कलेजे देखने वालों के क्या क्या आह छिलते हैं ।
कहाँ नाज़ुक यह पहुँचे और कहाँ यह रंग मिलते हैं ।
चमन में शाख़ पर कब इस तरह के फूल खिलते हैं ।
जो कुछ ख़ूबी में है उस शोख़ गुल रुख़सार की राखी ।।5।।
फिरें हैं राखियाँ बाँधे जो हर दम हुस्न के मारे ।
तो उनकी राखियों को देख ऐ ! जाँ ! चाव के मारे ।
पहन ज़ुन्नार और क़श्क़ः लगा माथे ऊपर बारे ।
’नज़ीर’ आया है बाम्हन बनके राखी बाँधने प्यारे ।
बँधा लो उससे तुम हँसकर अब इस त्यौहार की राखी ।।6।।
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