"उत्सर्ग एक्सप्रेस / सिद्धेश्वर सिंह" के अवतरणों में अंतर
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20:41, 5 जनवरी 2011 के समय का अवतरण
एक उदास उजाड़ उनींदा टीसन
इसे रेलवे स्टेशन की संज्ञा से विभूषित करना
एक संभ्रांत शब्द के साथ अन्याय होगा
एक जघन्य अपराध उस शब्दकोश के साथ भी
जो विलुप्त प्रजातियों की लुगदी के कायान्तरण पर
उदित हुआ है आश्चर्य की तरह
और शीशेदार आलमारी में लेटा है निश्चेष्ट ।
जाड़े पाले के जादू में लिपटी हुई यह रात
बीत जाने को विकल व्याकुल नहीं है अभी
कितना काव्यमय नाम है इस रेलगाड़ी का
जिससे अभी-अभी उतरा हूँ
माल असबाब और बाल बच्चों के साथ
प्लेटफ़ार्म पर मनुष्य कम दीखते हैं वानर अधिसंख्य
फ़र्श फाटक और लोहे की ठंडी मजबूत शहतीरों पर
काँपते कठुआये हमारे पूर्वज
एक दूसरे की देह की तपन को तापने में एकाग्र एकजुट ।
बाहर अँधेरा है
थोड़ा अलग थोड़ा अधिक गाढ़ा
जैसा कि पाया जाता है आजकल
हम सबके भीतर भुरभुराता हुआ
कुछ रिक्शे
कुछ तिपहिए
इक्का-दुक्का गाड़ियाँ जिन्हें मोटरकार कहा जाता था कभी
अब वे अपनी रंगत व बनावट से नहीं
ब्रान्ड से जानी जाने लगी हैं
असमंजस में हूँ फिर भी तय करता हूँ-
थोड़ा ठहर लिया जाना चाहिए अभी
भोर होने का इंतज़ार करते हुए
जैसा कि आम समझदारी का चलन है इन दिनों
अभी कुछ देर और देख लिया जाय वानरों का करतब
उनकी बहुज्ञता और बदमाशी के मिश्रण का कारनामा
किसी क़िताब में तो मिलने से रहा
उनमें भी नहीं जो वज़नी पुरस्कारों से नवाजी जा चुकी हैं
और फ़िलवक़्त मेरे बैग में विराजमान हैं
गर्म कपड़ों साबुन-तौलिए व बिस्कुट नमकीन के पूरक की तरह ।
दिन भर भरपूर उजाला
दिन भर पारिवारिक प्रसंग
आशल कुशल संवाद स्वाद
मानो एक बुझते हुए कौड़े की गर्म राख में रमी गर्माहट ।
दोपहर में पुस्तक मेला
क़िताबों के कौतुक में इंसानों का रेवड़-
बच्चे किशोर युवा और अधियंख्य बूढ़े
जिनकी वाणी में ही बची है
अरुणाभा की खिसियाहट भरी आँच
स्टालों पर बेशुमार काग़ज़ हैं
पर एक भी कोरा नहीं
कंधे छिलते-टकराते हैं
देखता हूँ अगल-बगल
आवारा सज्दे वाले कैफ़ी
दुनिया बदलने को बेचैन राहुल
प्रियप्रवास बाँचते बाबा हरिऔध
अपनी असाध्य वीणा सहेजते सहलाते अज्ञेय
जाने वाले सिपाही से फूलों का पता पूछते मख़्दूम
आदि-इत्यादि की श्रेणी से ऊपर-नीचे
साहित्याकाश के और भी दिपदिपाते ग्रह-उपग्रह-नक्षत्रा ।
अनुमान करता हूँ
इसी भव्य भीड़-भभ्भड़ और बगल के कमरे में चल रही
कविता की कार्यशाला के बीच
फराकथाओं में देखी गई
किंतु आजकल प्राय: अदृश्य कही जाने वाली आत्मा की तरह
मुस्तैद होंगी चंद जोड़ी खुफ़िया निगाहें
वांछित नाक-नक्श पहचानने की क़वायद में तत्पर तल्लीन
अपराध-सा करने की लिजलिजाहट से भरकर
ख़रीदता हूँ दो चार सस्ती क़िताबें
और एक बड़े मेहराबदार दरवाज़े से बाहर निकल आता हूँ
सड़क पर
जहाँ शोर और सन्नाटे रक्तिम आसव रिस रहा है लगातार-
बूँद-बूँद ।
कितना काव्यमय नाम है इस रेलगाड़ी का
जिससे आज ही लौटना है आधी रात के क़रीब
फिर वही टीसन
फिर वही वानर दल
फिर वही प्रतीक्षालय टुटही कुर्सियों वाला
फिर वही अँधेरा
फिर वही सर्द सन्नाटा-खुद से बोलता बतियाता ।
कैसे कहूँ कि गया था तमसा के तट पर
वहाँ आदिकवि की कुटिया तो नहीं मिली
पर एक उदास उजाड़ उनींदा स्टेशन जरूर दिखाई दे गया
जहाँ से गुज़रती हैं गिनी-चुनी सुस्त रफ्रतार रेलगाड़ियाँ
मैं हतभाग्य
अपने ही हाहाकार से हलकान
न मिजवाँ जा सका न पन्दहा
न जोकहरा न सरायमीर
सुना है यहाँ की जरखेज़ ज़मीन पर
कभी अंकुरित होते थे कवि शायर तमाम
अब भी होते होंगे बेशक-ज़रूर-अवश्य
पर उनका ज़िक्र भर छापने लायक
हम ही नहीं बना पाए हैं एक अदद छापाघर
मरहूम अक़बर इलाहाबादी साहब की नेक सलाह
और अपनी तमाम सलाहियत के बावजूद
तनी हुई तोप के मुक़ाबिल
हम ही निकाल नहीं पाए हैं एक भी अठपेज़ी अख़बार
यह दीगर-दूसरा किस्सा है कि
सब धरती को काग़ज़
सात समुद्रों को स्याही
और समूची वनराजियों को क़लम बना लेने का
मंत्रा देने वाला जुलाहा अब भी बुने जा रहा है लगातार-
रेशा-रेशा ।
अँधेरे मुँह गया
अँधेरे मुँह पलट आया
गोया उजाले से मुँह चुराने जैसे मुहावरों का
अर्थ लिखता-वाक्य प्रयोग करता हुआ
गाड़ी अभी लेट है
कितनी पता नहीं
ऊँघता सहायक स्टेशन मास्टर भी कुछ कहने की स्थिति में नहीं है
वानरों के असमाप्य करतब में कट रही है रात
यह न पूछो कि कब आएगी 'उत्सर्ग एक्सप्रेस'
पूछ सको तो पूछ लो
इस जगह का नाम
जिसे जिहवाग्र पर लाते हुए इन दिनों चौंक जाता हूँ जागरण के बावजूद
वैसे नींद के भीतर चौंक जाना कौन-सी बड़ी बात है ।
गजब है सचमुच गजब
बेटे-बिटिया बड़े शान से इतराए
पूरी कॉलोनी को बताए फिर रहे हैं-
हम लोग एक दिन के लिए गए थे आजमगढ़ ।