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"गाँव के खूँटे / केदारनाथ अग्रवाल" के अवतरणों में अंतर

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22:57, 9 जनवरी 2011 के समय का अवतरण

गाँव के खूँटे
शहर के मुहल्लों में
बहुत गहरे गड़े
वहाँ के सींगिया साँड़ आकर यहाँ बैतहाशा लड़े

सड़क पर चले-
तो, उपीछते चले-
महीन मर्यादाओं का सुगंधी परिवेश
इरादतन तोड़ते चले
नए आए गाँव के गोबरगंधी गणेश,

देह से पुष्ट और बलीन बोंगिए
शहर की खोपड़ी पर
हूदे घालते हैं,
प्रभुत्व के प्रदर्शन में
मौत की मर्दानगी उछालते हैं
यही जब कोप में
कलेजी खाया मुँह खोलते हैं,
मोतियों के बजाए-
विषाक्त गालियाँ रोलते हैं,

माथे में लगाए हैं
जो टीका देवी-भवानी का
जीतते चले आए हैं उसी के भरोसे पर
आज तक मोरचा जिंदगानी का

कंठ से लटकाए हुए कंठी बने हुए हैं पावन
मात तो इनसे अब भी वैसे खा सकता है रावन
न्याय यह कचहरी में लेते हैं
झूठ से चलाई नाव कागज़ पर खेते हैं
जंग के दुश्मन
और जवानी में औरत मारते हैं
पुरखों की पूरी पीढ़ी को काम और क्रोध से तारते हैं

सुबह से शाम तक
समय का सोना स्याह करते हैं,
सभ्यता और संस्कृति की दुनिया को तबाह करते हैं
ये नहीं-
इन्हें देखकर हम आह भरते हैं,
जीवन जीने का गुनाह करते हैं

रचनाकाल: ०४-०९-१९७१